शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

बहुत चालाक मुझको ये भले दुनिया समझती है ,
मेरी माँ आज भी मुझको मगर बच्चा समझती है 
 

बहन फूंकी गयी ससुराल में तबसे मेरी बेटी,
कहीं पे नौकरी करने को ही अच्छा समझती है 
 

उसे अपना भी लेती है तो ये बर्ताव रहता है , 
हर एक बेवा को दुनिया मर्द का जुठा समझती है 
 

गलफहमी तुझे कितनी बड़ी ये है की ये दुनिया ,
तेरे चेहरे तेरे कौम का चेहरा समझती है

2 टिप्‍पणियां:

  1. ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
    उसे अपना भी लेती है तो ये बर्ताव रहता है ,
    हर एक बेवा को दुनिया मर्द का जुठा समझती है |
    ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
    तारीफ़ में शब्द नहीं हैं .........
    बहुत ही सुन्दर विचार और दिल छू लेने वाली रचना है |

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