मंगलवार, 23 नवंबर 2010




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बुधवार, 17 नवंबर 2010

पर आपने झूठ क्यों बोला

सुरेन्द्र सर्वेक्षण में लगी अपनी ड्यूटी करता हुआ, एक घर से दूसरे घर जा रहा था।
एक घर में उसे दो सदस्य मिले, बाप-बेटा।
उसने एक फार्म निकाला और अपने ढंग से भरने लगा। घर के मुखिया का नाम,पता,काम लिखने के बाद, पूछना शुरू किया-
"आटा कितना लग जाता होगा?"
"जितना मर्ज़ी लिख लो जनाब ! "
"फिर भी, बीस-पच्चीस किलो तो लग ही जाता होगा? "
"हाँ जी।"
"दालें कितनी खा लेते हो? "
"आप समझदार हो, लिख लो खुद ही।"
"पाँच-छह किलो तो खा लेते होंगे? "
"क्यों नहीं, क्यूँ नहीं।"
"घी? "
"खाते हैं जी।"
"वह तो परमात्मा की कृपा से खाते ही होंगे। कितना शुद्ध और दूसरा कितना? "
"देसी घी? वह तो आपने याद दिला दिया। दिल तो बहुत करता है।" उसके चेहरे पर जरा-सी उदासी आ गई।
"मीट-अण्डों का सेवन….?"
"परमात्मा का नाम लेते हैं जी, पर जी में बहुत आता है।" कहते हुए उसने एक गहरी साँस ली।
इसी तरह दो सौ साठ प्रश्नों वाला फार्म, सुरेन्द्र ने एक-एक करके भरा। पूरी बात हो जाने पर, सुरेन्द्र ने फार्म से अंदाजा लगाया और पूछा, "बाकी तो सब ठीक है, पर जो आपने बताया है, उससे अनुमान होता है कि आप कुछ ज्यादा नहीं बता पाए।"
इस बार बेटे ने जवाब दिया, "दरअसल सही बात बताएँ, हम घर में रोटी बनाते ही नहीं। हम बाप-बेटे दो आदमी यहाँ रहते हैं। बाकी तो गाँव में हैं। हमने एक होटलवाले से बात तय कर रखी है। दाल-रोटी सुबह,यूँ ही शाम को।"
सुरेन्द्र दोनों की तरफ टिकटिकी बाँधे देखता रहा…घंटा पौन लगाया फार्म भरने में और निकला..
"भई! ये क्या किया आपने….?"
"किया क्या बेटा ! पहले तो मुझे लगा कि मैं यह क्या बता रहा हूँ। फिर ज्यों-ज्यों तू पूछता रहा, मेरा मन किया कि तुझसे बातें जरूर करूँ।"
"पर आपने झूठ क्यों बोला?"
"झूठ कहाँ बोला बेटा। यह तो सब सच है। झूठ तो बेटा यह है जो हम अब गुजर कर रहे हैं।"

एक नया रिश्ता निकल आया था।

"मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।" कहकर रामसिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहालसिंह ने अपना गाँव नजदीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राइवर के पास जाकर धीमे से बोला, "डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।"
"क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?" डाइवर ने खीझकर कहा।
"अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।" निहालसिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहालसिंह को देखा और फिर उसने भी धीमे से कहा, "मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।"
निहाले ने जरा रुककर कहा,"तो क्या हुआ? सिंख भाई हैं हम, वीर [भाई] बनकर रोक दे।"
ड्राइवर इस बार जरा-सा मुसकाया और बोला, "मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।"
"तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए हो। आदमी ही आदमी की दवा होता है। इससे बड़ा भी कुछ है।"
जब निहाले ने इतना कह तो ड्राइवर ने खूब गौर से उसको देखा और ब्रेक लगा दी।
"क्या हुआ?" कंडक्टर चिल्लाया, "मैंने पहले नहीं कहा था? किसलिए रोक दी?"
"कोई नहीं, कोई नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।" ड्राइवर ने कहा और निहालसिंह तब तक नीचे उतर गया था।

फिर देखना तुम कितनी सुन्दर और जवान लगोगी।

मिस्टर खन्ना अपनी पत्नी के साथ बैठे जनवरी की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे। छत पर पति-पत्नी दोनों अकेले थे, इसलिए मिसेज खन्ना ने अपनी टाँगों को धूप लगाने के लिए साड़ी को घुटनों तक ऊपर उठा लिया।
मिस्टर खन्ना की निगाह पत्नी की गोरी-गोरी पिंडलियों पर पड़ी तो वह बोले, "तुम्हारी पिंडलियों का मांस काफी नर्म हो गया है। कितनी सुंदर हुआ करती थीं ये! "
"अब तो घुटनों में भी दर्द रहने लगा है, कुछ इलाज करवाओ न! " मिसेज खन्ना ने अपने घुटनों को हाथ से दबाते हुए कहा।
"धूप में बैठकर तेल की मालिश किया करो, इससे तुम्हारी टाँगें और सुंदर हो जाएँगी।" पति ने निगाह कुछ और ऊपर उठाते हुए कहा, "तुम्हारे पेट की चमड़ी कितनी ढलक गई है! "
"अब तो पेट में गैस बनने लगी है। कई बार तो सीने में बहुत जलन होती है।" पत्नी ने डकार लेते हुए कहा।
"खाने-पीने में कुछ परहेज रखा करो और थोड़ी-बहुत कसरत किया करो। देखो न, तुम्हारा सीना कितना लटक गया है! "
पति की निगाह ऊपर उठती हुई पत्नी के चेहरे पर पहुँची, "तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं।"
"हां जी, अब तो मेरी नज़र भी बहुत कमजोर हो गई है, पर तुम्हें मेरी कोई फिक्र नहीं है! " पत्नी ने शिकायत-भरे लहज़े में कहा।
"अजी फिक्र क्यों नहीं, मेरी जान ! मैं जल्दी ही किसी बड़े अस्पताल में ले जाऊँगा और तुम्हारी प्लास्टिक सर्जरी करवाऊँगा। फिर देखना तुम कितनी सुन्दर और जवान लगोगी।" कहकर मिस्टर खन्ना ने पत्नी को बाँहों में भर लिया।

उसके रहस्योद्घाटन ने मुझे सकते में डाल दिया।

अगले दिन लाल बाबू आफिस नहीं आए। पता चला कि रात को अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें रात को ही समीप के एक प्राइवेट हास्पिटल में भर्ती करना पड़ा। आॅफिस से हम कई लोग उन्हं देखने पहुँचे। अस्पताल के बाहर ही लाल बाबू की पत्नी और उनका बेटा हमें मिल गए। दोनों के चेहरे लटके हुए थे। लाल बाबू की पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। हम लोगों ने धीरे–धीरे सारे मामले की जानकारी ली। मालूम हुआ कि लाल बाबू को आई.सी.यू. में रखा गया है। उनके पेट में भयंकर दर्द है। किन्तु आई.सी.यू. में किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है।
लाल बाबू अपनी ईमानदारी और सहृदयता के लिए हमेशा से जाने जाते रहे हैं। अत: हम लोगों की भी उनके प्रति गहरी संवेदना थी। हम लोग अस्पताल के प्रमुख प्रभारी से मिले और उनसे इलाज पर होने वाले खर्च का अनुमान पूछा। उन्होंने लगभग एक लाख रुपए का खर्चा बताया।
खैर, मैंने और गुप्ता ने मेडिकल एडवांस का फार्म भरा और डॉक्टर की सहमति लेकर एक लाख रुपए के लिए आवेदन किया! सुपरिडेंट साहब ने तुरन्त एक लाख का चेक बनवाकर हमारे हवाले कर दिया! चैक अस्पताल के प्रमुख प्रभारी के नाम था।
हमने चैक अस्पताल के काउन्टर पर जमा कर दिया और एक तरह से इलाज के खर्च से राहत महसूस की। लाल बाबू को अस्पताल में सात दिन रखा और उसके बाद मृत घोषित कर दिया गया।
लाल बाबू की मृत्यु की बात सुनकर उनकी पत्नी, बच्चे और परिजन दहाड़े मारकर रोने लगे।
तभी किसी सज्जन ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैंने मुड़कर देखा, कोइ्र अधेड़–सी उम्र का अपरिचित व्यक्ति मेरे सामने खड़ा था। वह धीरे से बोला,‘‘इधर आइए।’’ मुझ वह युवक एक तरफ ले गया और फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, आपका वह आदमी तो जिस दिन भर्ती हुआ था, उसी दिन चल बसा था। आप सरकारी मुलाजिम हैं। आपने जो एडवांस का चैक जमा कराया था, उसकी रकम का एडजस्टमेंट करने के लिए तुम्हारे आदमी की लाख को इतने दिन तक आई.सी.यू. में रखा गया था।’’ इतना कह क रवह युवक तेजी से वहाँ से खिसक गया और अस्पताल में जाने कहाँ गुम हो गया! परन्तु उसके रहस्योद्घाटन ने मुझे सकते में डाल दिया।

रविवार, 7 नवंबर 2010

Is still shaking tail

Darwin had to say about human development the tail was the first human use but long absence, he gradually disappeared.
Scientists believe that the end of the spine still outstanding is the existence of the tail. They say that the evidence will be called with the science does not believe anything without proof.
So, he Gaha tail - will also be frequent shaking. If you wish to see the tail was moving if it is no longer possible. But many times the word is shaking, indicating that the tail is moving.
Well daily lives will find several examples. Professor says such things in front of some students come to know the other students that were hidden inside the tail will be moving. Some of the boss when "necessary to discuss" would be doing the rest of the office if people feel that the tail is moving. How often have in yearly People knowingly or unknowingly do so.
But the broader political statements as it often runs out.
Mastered the Congressmen's special. Nitish Kumar said that Rahul Gandhi becoming the prime minister before becoming chief government - the administration should understand. Came the reply from the Congress, "Chief Minister Atal Bihari Vajpayee, Rahul Gandhi could become prime minister without why not?"
Atal Bihari Vajpayee and his people who understand politics know that the tail is moving.
Before the Congress in Bihar, a spokesman said, "JP (Jai Prakash Narayan) and Rahul Gandhi have in common."
Large section of the Congress knows and believes that the biggest enemy of the Congress in the '70s was someone they were JP. But compared to someone in Bihar then JP would not have the big personality. That turned out to be the tail Hilly the tongue compared to the JP.
Before a gentleman 'Indira Is India' had said. He says "master stroke" was. I do not know why the scientists tested not tested but could not find evidence that time Pukhta's tail shaking.
Well it's not moving the tail has a monopoly of the Congress. Bharatiya Janata Party too often gives the evidence is.
BJP in a critical moment of gentle heart was moved, he said, "LK Advani, the iron man, like Vallabhbhai Patel."
Socialists also a late leader of the "small Lohia say 'was started.
"When will the sun moon Aflahँ name will live" as the slogan the feel of the group are shaking tail.
You could say that of all its - its tail, which is the wish, wave. But then the crisis stands the tail by ignoring people seem to accept the right slogans.
History has shown that India Indira ji to acknowledge their mistake, the evidence currently exists that Advani himself as Iron Man sitting values. Now look at James G. Puँchean was shaking even if they can not see will not know JP or AB. Or someone says they'll wait, "James is the nation."
Well knowledgeable people say that the development would not order ever in the opposite direction so there is no danger.
But to not use the tail may be missing the extra use if you have begun to rise again some day?

अब भी हिलती है पूँछ

डार्विन ने मानव विकास के बारे में कहा था कि पहले मानव की भी पूँछ होती थी लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल न होने की वजह से वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई.
वैज्ञानिक मानते हैं कि रीढ़ के आख़िर में पूँछ का अस्तित्व अब भी बचा हुआ है. वे ऐसा कहते हैं तो प्रमाण के साथ ही कहते होंगे क्योंकि विज्ञान बिना प्रमाण के कुछ नहीं मानता.
तो अगर पूँछ है तो वह गाहे-बगाहे हिलती भी होगी. अगर आप पूँछ को हिलता हुआ देखने की इच्छा रखते हों तो ऐसा अब संभव नहीं है. लेकिन कई बार ज़बान हिलती है तो इसके संकेत मिलते हैं कि पूँछ हिल रही है.
वैसे तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसके कई उदाहरण मिल जाएँगे. प्रोफ़ेसर के सामने कुछ छात्र ऐसी बातें कहते हैं जिससे दूसरे छात्रों का पता चल जाता है कि भीतर छिप गई पूँछ हिल रही होगी. बॉस से कुछ लोग जब 'ज़रुरी बात पर चर्चा' कर रहे होते हैं तो दफ़्तर के बाक़ी लोग महसूस करते हैं कि पूँछ हिल रही है. इश्क में पड़े लोग तो जाने अनजाने कितनी ही बार ऐसा करते हैं.
लेकिन व्यापक तौर पर इसका पता अक्सर राजनीतिक बयानों से चलता है.
कांग्रेसियों को इसमें विशेष महारत हासिल है. नीतीश कुमार ने कहा कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने से पहले मुख्यमंत्री बनकर शासन-प्रशासन को समझना चाहिए. तो कांग्रेस से जवाब आया, "जब अटल बिहारी वाजपेयी मुख्यमंत्री बने बिना प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो राहुल गांधी क्यों नहीं?"
जो लोग अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी राजनीति को जानते हैं वो समझ गए कि पूँछ हिल रही है.
इससे पहले बिहार में ही कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा था, "जेपी (जयप्रकाश नारायण) और राहुल गांधी में समानता है."
कांग्रेस का बड़ा तबका जानता और मानता है कि 70 के दशक में कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन कोई था तो वे जेपी ही थे. लेकिन बिहार में किसी से तुलना करनी हो तो जेपी से बड़ा व्यक्तित्व भी नहीं मिलता. इसलिए पूँछ हिली तो ज़बान से जेपी से तुलना ही निकली.
इससे पहले एक सज्जन 'इंदिरा इज़ इंडिया' कह चुके थे. कहते हैं कि वह 'मास्टर स्ट्रोक' था. पता नहीं क्यों वैज्ञानिकों ने जाँचा परखा नहीं लेकिन उस समय पूँछ हिलने का पुख़्ता प्रमाण मिल सकता था.
वैसे ऐसा नहीं है कि पूँछ हिलाने पर कांग्रेसियों का एकाधिकार है. भारतीय जनता पार्टी भी अक्सर इसके प्रमाण देती रहती है.
किसी नाज़ुक क्षण में एक भाजपाई सज्जन का दिल द्रवित हुआ तो उन्होंने कहा, "लालकृष्ण आडवाणी लौह पुरुष हैं, वल्लभ भाई पटेल की तरह."
समाजवादियों ने भी अपने एक दिवंगत नेता को 'छोटे लोहिया' कहना शुरु कर दिया था.
'जब तक सूरज चाँद रहेगा फलाँ जी का नाम रहेगा' वाला नारा जब लगता है तो सामूहिक रुप से पूँछ हिलती हैं.
आप कह सकते हैं कि सबकी अपनी-अपनी पूँछ है, जिसे जब मर्ज़ी हो, हिलाए. लेकिन संकट तब खड़ा होता है जब पूँछ को अनदेखा करके लोग नारों को सही मानने लगते हैं.
इतिहास गवाह है कि इंदिरा जी ने अपने को इंडिया मानने की ग़लती की तो वर्तमान में प्रमाण मौजूद हैं कि आडवाणी जी ख़ुद को लौह पुरुष ही मान बैठे. अब नज़र राहुल जी पर है वे भी अगर हिलती हुई पूँछें न देख सके तो पता नहीं जेपी हो जाएँगे या अटल. या कि वे इंतज़ार करेंगे कि कोई कहे, "राहुल ही राष्ट्र है."
वैसे तो ज्ञानी लोग कहते हैं कि विकास का क्रम कभी उल्टी दिशा में नहीं चलता इसलिए कोई ख़तरा नहीं है.
लेकिन उपयोग न होने से पूँछ ग़ायब हो सकती है तो अतिरिक्त उपयोग से अगर किसी दिन फिर बढ़नी शुरु हो गई तो?

एक बिहारी की नज़र से


बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, 'बिहार विल राइज़ फ़्रॉम इट्स ऐशेज़' यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा.
एक बिहारी की नज़र से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी.
लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2004 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी.
मैं 2004 के बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था.
पटना से सहरसा की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां.
सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.
इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी वो सहरसा पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी.
लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!
ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे.
लगभग छह सालों बाद यानि 2010 की अप्रैल में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था.
परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.
अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया.
दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं.
डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले.
किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी.
कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी.
और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है.
इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है बल्कि लालू-राबड़ी दंपत्ति का पूरा राजनीतिक भविष्य इस चुनाव से तय हो सकता है.
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी.
और मुख्यमंत्री कोई बने मेरी उम्मीद बस यही है कि जिस उम्मीद की इजाज़त बिहारियों को पिछले पांच सालों में मिली है वो अब उनसे छिन न सके.

mukesh pandey

mukesh pandey ka bhojpuri geet

Corrupt alliance


 The matter remained in the public mind over the years - living is rising, he Supreme Court has brought his critical comments via the record. Disproportionate wealth to a government official accused the innocent believe Markdey Katju and Tञansodha Mishra bench, Justice made the decision, certainly a different message than is in society.

Junior Inspector of Co-operation Department of Andhra Pradesh only 2.63 lakh disproportionate assets of value came out, which the trial court in 1996, he had heard RI. Meanwhile, in the past nearly 14 years, not many dates to be engaged in the High Court and then Supreme Court.Attorneys' fees, travel, photo copying, court fee etc. will definitely cost Rs 2.63 lakh. But the core issue of the court's comment that Maoju, the government should seek to learn.

Arco crocodiles and then leaves the government and does smaller officers reprimanded. It is said by the Supreme Court in the case of the small graft. It is well known that older officers often colluded with politicians, etc. to escape from every side. Few politicians are corrupt prison or have their chair moves. Once the chair is taken away a few days after the manipulation and transaction then gets through. In our country, government officials, politicians and other people's views and invisible force is strong enough to combine. It is hard to break and probably not even want it broken. General opinion is against the alliance, but who listens to her. The background of the Supreme Court and the government imposed reprimand comment makes sense.

The sad thing is that TV and newspapers reprimand two - four days 'news' as will, then will disappear from memory. This will change the functioning of government and large, influential and powerful government officials (IAS, IPS etc) Dereange and Shudhrenge, it seems less possible. It is difficult Ombudsman, Lokayukta, CBI, corruption prevention other institutions, despite the growing powers of wealth, greed and unethical in the country seems to be less attraction. Commonwealth Games the latest and shameful example.

भ्रष्ट गठजोड़

 जनता के मन में जो बात वर्षो से रह-रहकर उठती रही है, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी के जरिए रिकॉर्ड पर ला दिया है। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोपी एक सरकारी अधिकारी को निरपराध मानते हुए न्यायमूर्ति मरकडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने जो निर्णय दिया, उससे निश्चित रूप से एक अलग संदेश समाज में गया है।

आंध्रप्रदेश के सहकारिता विभाग के एक जूनियर इंस्पेक्टर के पास सिर्फ 2.63 लाख रुपए मूल्य की आय से अधिक संपत्ति निकली, जिस पर निचली अदालत ने 1996 में उसे सश्रम कारावास की सजा सुना दी थी। इस बीच पिछले करीब 14 वर्षो में न जाने कितनी तारीखें उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में लगी होंगी। वकीलों की फीस, यात्राओं, फोटो कॉपी, कोर्ट फी आदि में निश्चित ही 2.63 लाख से ज्यादा रुपए खर्च हुए होंगे। लेकिन मूल मुद्दा न्यायालय की उस मौजू टिप्पणी का है, जिससे सरकार को सीख लेनी चाहिए।

सरकार मगरमच्छों और शार्को को तो छोड़ देती है और छोटे अफसरों को प्रताड़ित करती है। यह कहा है सुप्रीम कोर्ट ने इस छोटे भ्रष्टाचार के मामले में। यह सर्वविदित है कि बड़े अफसर अक्सर नेताओं आदि से सांठगांठ कर हर तरफ से बच जाते हैं। भ्रष्ट नेता भी कम ही जेल जाते हैं या उनकी कुर्सी खिसकती है। एक बार यदि कुर्सी छिन जाती है तो कुछ दिनों के बाद जोड़-तोड़ और लेन-देन के जरिए फिर मिल जाती है। हमारे देश में सरकारी अफसर, राजनेता और अन्य प्रभावशील लोगों का दृश्य व अदृश्य गठबंधन काफी तगड़ा है। इसे तोड़ना मुश्किल भी है और शायद कोई चाहता भी नहीं कि यह टूटे। साधारण जनमानस इस गठजोड़ के खिलाफ है, पर उसकी सुनता कौन है। इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और सरकार को लगाई गई फटकार का महत्व है।

दुख इस बात का है कि यह फटकार टीवी और अखबारों में दो-चार दिनों तक ‘खबर’ के रूप में रहेगी, फिर स्मृति से ओझल हो जाएगी। सरकार की कार्यप्रणाली इससे बदलेगी और बड़े, प्रभावशाली व ताकतवर सरकारी अफसर (आईएएस, आईपीएस आदि) डरेंगे और सुधरेंगे, यह कम संभव दिखता है। मुश्किल यह भी है कि लोकपाल, लोकायुक्त, सीबीआई, भ्रष्टाचार निवारक अन्य संस्थाओं के बढ़ते अधिकारों के बावजूद देश में अनैतिक दौलत का लोभ व आकर्षण कम होता नहीं दिखता। कॉमनवेल्थ गेम्स इसका ताजा और शर्मनाक उदाहरण हैं।

कब सुधरेंगे हम

 सुधारों के लिए यही सबसे सही समय है। आर्थिक सुधारों के लिए नहीं, बल्कि खेल संघों के ढांचे में सुधार के लिए। कॉमनवेल्थ खेल प्रारंभ होने से पहले उनकी तैयारियों को लेकर काफी हायतौबा मची थी, लेकिन भारत के खिलाड़ियों ने पदकों का शतक पूरा कर दिखाया। 

इससे एक बात तो सभी के मन में पूरी तरह साफ हो गई है (सिवाय हमारे राजनेताओं के) कि खेल संघों की मनमानीपूर्ण कार्यप्रणाली के बावजूद एथलीटों ने अपने बूते और अपने दमखम पर श्रेष्ठ प्रदर्शन कर देश का गौरव बढ़ाया है। प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले वित्त मंत्री के रूप में देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत करते हुए हमारे उद्योगों और व्यवसाय जगत को नियंत्रणों की बेड़ियों से मुक्त किया था। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि वे एक बार फिर ऐसा ही कदम उठाते हुए नाकारा खेल संघों के ढांचे को ढहा देंगे।

कॉमनवेल्थ खेलों के पदकवीर हमारे खिलाड़ियों की कहानियां बेहद मार्मिक हैं। इनमें से कई गरीबी और अभावों से जूझते हुए यहां तक पहुंचे हैं। उन्होंने अपना जीवन खेलों को समर्पित कर दिया। कड़े प्रशिक्षण के जरिये अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए उन्हें अपने परिवार से दूर तक रहना पड़ा। 

यहां तक कि साइना नेहवाल जैसे मध्यवर्गीय तबके से आने वाले खिलाड़ियों के परिवारों को भी अपने बच्चों के लिए बहुत कुर्बानियां देनी पड़ी हैं। लेकिन हर खिलाड़ी की कहानी से एक अहम कड़ी गुम है। और वह है उनकी सफलता में हमारे तथाकथित खेल संघों या संस्थाओं का योगदान, जिनकी सबसे पहले यह जिम्मेदारी थी कि वे खेल प्रतिभाओं को पहचानें और आगे बढ़ने में उनकी मदद करें।

उम्मीद की जानी चाहिए कि मनमोहन सिंह इस बात को समझेंगे कि विदेशी निवेश के साथ ही खेलों ने भी भारत की तरक्की की दास्तान में अहम भूमिका निभाई है। कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों में हुई ढीलपोल पर विदेशी मीडिया में जिस तरह नकारात्मक प्रचार हुआ, उससे निश्चित ही भारत की छवि को चोट पहुंची है। 

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद इसमें कोई शक नहीं है कि बीजिंग ओलिंपिक का बेदाग आयोजन करने वाले चीन ने भारत पर बढ़त हासिल कर ली है। इससे एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन करने की भारत की क्षमता पर सवालिया निशान लगे हैं।

हमारे यहां खेलों की स्थिति में सुधार लाने में सबसे बड़ी अड़चन हैं खेल संघों के न्यस्त स्वार्थ। आर्थिक सुधारों से पहले जो हैसियत नॉर्थ ब्लॉक और उद्योग भवन की थी, आज वही स्थिति खेल संघों और संस्थाओं की है। 

मजे की बात यह है कि इस र्ढे को बनाए रखने में सभी राजनीतिक दल एकजुट हैं। इस बहस से क्रिकेट को बाहर रखा जा सकता है, क्योंकि बीसीसीआई कामयाबी की एक शानदार कहानी है, अलबत्ता मुसीबतें उसकी भी कम नहीं। लेकिन अन्य खेल संघ तो सत्ता के अखाड़े बन चुके हैं, जहां काबिज होने के लिए राजनीतिक दलों के बीच खूब खींचतान होती है।

हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी लंबे समय से राजनेताओं और नौकरशाहों की इसी आपसी रस्साकशी का शिकार होता आ रहा है। ऐसी स्थिति में खिलाड़ियों को अपने बूते ही खुद को साबित करना पड़ता है। हमारी हॉकी टीम ने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कॉमनवेल्थ खेलों में रजत पदक हासिल किया था। बैडमिंटन संघ ने तो स्वर्ण पदक जीतने वाली खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा को उसकी उपलब्धियों के लिए ठीक से शुभकामनाएं तक नहीं दीं।

जब भारत के खिलाड़ियों ने कॉमनवेल्थ खेलों में १क्१ पदक जीत लिए, तब ये खबरें भी आने लगीं कि राजनेताओं के बीच खेलों की सफलता का सेहरा अपने सिर बांधने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। ऐसे अवसर पर उस लड़की के हौसले को बड़ी आसानी से भुला दिया जाता है, जो दस हजार मीटर दौड़ में इसलिए कांस्य पदक जीतने में कामयाब हो पाई, क्योंकि उसे पानी भरने के लिए रोज कई किलोमीटर तक दौड़ लगाकर जाना पड़ता था। 

या तीरंदाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाली वह लड़की, जिसके पिता ऑटो रिक्शा चलाते हैं। अगर खेल संघों के भ्रष्ट और जर्जर ढांचे के बावजूद हमारे खिलाड़ियों ने शीर्ष स्तर पर सफलताएं हासिल की हैं तो उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इस ढांचे में बहुत पहले ही सुधार हो जाना था।

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

हमारे राजनेता सचमुच परिपक्व हो गए हैं?

अयोध्या पर आया फैसला और इसके बाद किसी तरह की हिंसा-मारकाट का न होना जनता और खासकर राजनीतिक दलों की नई भावनात्मक परिपक्वता का संकेत है। यह परिपक्वता क्षणिक है या स्थायी, इसका निर्णय समय करेगा। 

फिलहाल यही लग रहा है कि नेताओं ने खुद को इसलिए रोक रखा है क्योंकि मीडिया की निगाह उनकी गतिविधियों पर है। आम जनता की धर्म-केंद्रित भावनाओं का राजनेता जिस तरह दोहन करते रहे हैं, उसे देखते हुए उनकी भावनात्मक परिपक्वता पर यह अविश्वास स्वाभाविक है।

सोशल इंटेलीजेंस पर अपनी पुस्तक में डेनियल गोलमैन ने कहा है कि हमारा मस्तिष्क सामाजिक स्थितियों में विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया करने का आदी होता है। नेता एक खास तरह के व्यवहार का प्रदर्शन करें और समाज से भी उसकी उम्मीद करें, तो वह उन्हें जरूर मिलेगा। 

जरूरत है कि हम नई पीढ़ी के नेताओं की ओर देखें और उनसे पूछें : क्या उनमें ऐसी परिपक्वता है; वे हमें बेहतरी की ओर ले जाएंगे या पतन की ओर? परिपक्वता हालांकि उम्र के साथ आती है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, पिछले अनुभवों, ज्ञान व सीख के आधार पर आलोचनात्मक होने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जाती है। 

हमारी सामाजिक बुद्धिमत्ता एक सीमा से आगे विकसित नहीं हो पाती। क्या हमें भाजपा के युवा नेतृत्व में ऐसे विकास के चिह्न् दिखाई देते हैं या हम उन्हें ऐसे विवादित मुद्दों की तलाश में देख रहे हैं, जो हमें उकसाएं लेकिन जरूरी नहीं कि बेहतर देश बनने में मदद करें? क्या नितिन गडकरी, शिवराजसिंह चौहान, सूर्य प्रताप शाही, अनुराग ठाकुर और वरुण गांधी जैसे युवा नेता हमें उच्च धरातल पर ले जाएंगे? यही सवाल कांग्रेस से भी पूछने की जरूरत है। 

सचिन पायलट, जितेंद्र प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा व अन्य युवा नेता क्या हमें विवेकपूर्ण रास्ते पर ले जा रहे हैं, जो आम लोगों के हित में है, या वे भी ऐसे विभाजक भावुक मुद्दे की खोज में हैं, जो थोड़े समय के लिए जनसमूह को जोड़ सके। इस यूथ ब्रिगेड के कर्णधार राहुल गांधी देशभर में युवा कांग्रेस की सदस्यता के लिए लोगों को आकर्षित करने का अभियान चला रहे हैं। लेकिन वह आज के युवाओं से कह क्या रहे हैं? 

वे हमारे भावनात्मक अतीत को छेड़ रहे हैं या हमारे विवेकशील भविष्य को जगा रहे हैं? उनके अभियान के पीछे कोई रणनीति है या यह युक्ति भर है? अधिकांश नेता रणनीति और युक्ति में अंतर नहीं समझ पाते। हमारे धर्मग्रंथ इसकी अच्छी व्याख्या करते हैं। 

जब विष्णु अपनी सवारी गरूड़ को रणभूमि का निरीक्षण करने को कह रहे थे, तब वह आगे के लिए विश्व दृष्टिकोण व रणनीतिक दृष्टि विकसित करने की कोशिश कर रहे थे। रणनीति और कुछ नहीं गरूड़ दृष्टि है। आपको अपने चारों ओर की घटनाओं पर विश्व दृष्टिकोण तैयार करना होता है। 

व्यापक दृष्टिकोण यह होगा कि जनसमूह को कौन-सी चीज आकर्षित करेगी और समर्थकों की फौज कैसे तैयार होगी। क्या हम अपने युवा राजनीतिक नेताओं में ऐसी रणनीतिक विचारशीलता देख रहे हैं? क्या उनका विजन हमें प्रेरित करता है? क्या उनके पास विश्व में हो रही घटनाओं को लेकर गरूड़ दृष्टि है और क्या उनकी युक्तियां इसी विश्व दृष्टि से निकली हैं? 

क्या बराक ओबामा या अन्य नेता में हमें यह गरूड़ दृष्टि दिखाई देती है। जब ओबामा ने अपने ‘यस वी कैन’ चुनाव अभियान की रूपरेखा तैयार की थी, उन्होंने इन तीन शब्दों में अपने राष्ट्र की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया था। लेकिन विष्णु जब सर्प की शैया पर विराजमान कृष्ण अवतार में होते हैं तब उनके पास सर्प दृष्टि है। 

उनकी दृष्टि संकुचित है और सर्प की तरह वह केवल वही देख पाते हैं जो उनकी आंखों के आगे हो रहा है। यह युक्ति-केंद्रित तरीका है और हमारा राजनीतिक नेतृत्व आजकल इसी पर फोकस है। दुनिया की युक्तियों की उनकी समझ अच्छी है और वे युवा नेताओं को भी युक्तियां सिखा रहे हैं। अयोध्या फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया सर्प दृष्टि की परिणति थी या गरूड़ दृष्टि की? रणनीतिपूर्ण थी या युक्तिपूर्ण? भावनात्मक थी या विवेकपूर्ण?

युक्तिपूर्ण फैसले सांप की तरह तेज और आक्रामक हो सकते हैं। ये अपनी सीमित दृष्टि के सामने आने वाली किसी भी वस्तु या हलचल पर हमला कर सकते हैं। यह घटनाओं के प्रति भावुक प्रतिक्रिया है और हमारे मस्तिष्क के भावनात्मक हिस्से से आती है। 

रणनीतिक फैसले बेहतर समझ के साथ लिए जाते हैं और यह देश, संगठन या जनसमूह की दिशा को बदल या प्रभावित कर सकते हैं। जब बात समाज को गढ़ने की हो, तो ये फैसले मस्तिष्क के सामाजिक व विवेकशील हिस्से से आते हैं। 

वैज्ञानिकों में अभी इस बात पर मतभेद है कि क्या हमारी सामाजिक बुद्धिमत्ता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता हमारे मस्तिष्क के भीतर जुड़ जाती हैं, ताकि हम अपने युक्तिपूर्ण फैसलों पर भी रणनीतिक तरीके से काम कर सकें। इन दिनों मानव मस्तिष्क को लेकर सबसे ज्यादा शोध इसी पर हो रहे हैं। 

राजनीतिक नेतृत्व को और ऊंचे मानकों की आवश्यकता है। उन्हें सामाजिक बुद्धिमत्ता को रणनीतिक विचारों के साथ जोड़ने की जरूरत है। उनकी सामाजिक बुद्धिमत्ता उन्हें जनसमूहों को नेतृत्व प्रदान करने में मदद करेगी, जबकि उनकी रणनीतिक समझ उन्हें विरोधियों की युक्तिपूर्ण योजना से ऊपर उठने में मदद करेगी। 

कुछ अवसरों पर वे युक्तिपूर्ण व भावनात्मक तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन उनके मूल समर्थक हमेशा ऊंचे लक्ष्यों की वकालत से ही आएंगे। जनता व्यक्तियों के पीछे नहीं चलती, वह उन विचारों के पीछे चलती है, जिनका समय आ गया है।