रविवार, 31 अक्तूबर 2010

...

अँधेरों पर भारी उजाले रहेंगे
तो हाथों में सबके निवाले रहेंगे
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

चाँद पर बेबसी छाई है

कल पिघल‍ती चाँदनी में 
देखकर अकेली मुझको 
तुम्हारा प्यार
चलकर मेरे पास आया था 
चाँद बहुत खिल गया था। 

आज बिखरती चाँदनी में 
रूलाकर अकेली मुझको 
तुम्हारी बेवफाई 
चलकर मेरे पास आई है 
चाँद पर बेबसी छाई है। 

कल मचलती चाँदनी में 
जगाकर अकेली मुझको 
तुम्हारी याद 
चलकर मेरे पास आएगी 
चाँद र मेरी उदासी छा जाएगी।

मैं कहाँ छुप जाऊँ...

हमारे संबंधों में रूखापन
आ रहा है
मैं चुप रहता हूँ
उसे खटकता नहीं
मैं बोलता हूँ
उसके कान उत्सुक नहीं रहते
मैं आता हूँ उसकी नजर नहीं उठती
मैं जाता हूँ
उसका दिल नहीं डूबता
मुझे कुछ कहना होता है
उसकी दूसरों से बातें
खत्म नहीं हो रही होतीं
मुझे कुछ चाहिए होता है
उसे कुछ याद नहीं आता
मैं साहस करके कुछ कह देता हूँ
उसकी जबान फट पड़ती है
पहले मैं अनुमान लगा सकता था
क्या-क्या टूटने-चटखने की बारी है
मगर अब नहीं
मैं कितना दूर चला जाऊँ
कि उसे मेरी याद आ जाए
मैं कहाँ छुप जाऊँ
कि उसे मुझे ढूँढना पड़े?

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

साले, लड़कियों का ठेकेदार बनता है..


ब्लूलाइन बस में स्कूली ड्रेस पहने बैठीं दो लड़कियां। उम्र 13-14 साल रही होगी। उनके ठीक पीछे एक काफी बूढ़ी महिला। बस में 20-22 लोग और भी बैठे थे। सात-आठ मुस्टंडे भी बस में सवार थे। उनमें से दो लड़केपूरी तरह सहमी हुई लड़कियों के सामने खड़े होकर उनसे बदतमीजी कर रहे थे। एक लड़का लड़कियों के पीछे की सीट पर (जिस पर वृद्ध महिला बैठी था) खड़ा होकर पीछे की ओर से उनसे छेड़खानी कर रहा था। पहली बार ऐसी घटना आंखों के सामने घट रही थी...

बात तब की है जब मैं एक न्यूज चैनल में काम करता था। दिल्ली के झंडेवालां इलाके में मेरा ऑफिस था। सुबह की शिफ्ट में काम करके घर लौट रहा था। जनवरी की सर्द शाम थीकोई चार-साढ़े चार का वक्त रहा होगा। सामने से एक ब्लूलाइन बस गुजर रही थी,जिसमें आमतौर पर मैं नहीं चढ़ता था क्योंकि वह मेरे रूट की नहीं थी। फिर सोचा कि इंतजार क्या करनाथोड़ी दूर तक इससे चला जाता हूंआगे जाकर बस बदल लूंगा। बस में पीछे के दरवाजे से चढ़ गया। बस के अंदर चढ़कर सबसे पीछे की खाली सीट पर बैठ गया। अपने ख्यालों में ही खोया हुआ था कि वृद्ध महिला की आवाज ने ध्यान खींचा।

दो मासूम बच्चियां सात-आठ बदमाश से दिखने वाले लड़कों के बीच घिर गई थींबुढ़िया उन्हें बचाने की गुहार लगा रही थी। न ड्राइवरन कंडक्टर और न ही बस में किसी और यात्री ने उसकी तरफ ध्यान दिया। देख सभी रहे थेलेकिन तमाशबीन बनकर। बस का सीन किसी फिल्म की तरह मेरी आंखों के आगे से गुजर रहा था। दिमाग का एक हिस्सा बोला'तुम भी सबकी तरह चुपचाप बैठे रहोगामा बनने की जरूरत नहीं। सात-आठ हट्टे-कट्टे लड़कों के सामने तुम्हारी क्या बिसात20 दिन बाद तुम्हारी शादी हैकिसी ने चाकू-वाकू ही मार दिया तोगुंडों का क्या भरोसा। तुम्हारी बहन लगती हैं क्या? लड़की को छोड़कर तुम्हारे ऊपर पिल पड़ेंगेतब क्या करोगेशांत बैठे रहो और भगवान से मनाओ कि यह लड़के खुद ही बस से उतर जाएं।'

दिमाग का दूसरा हिस्सा बोला, वाह भई वाह, ऐसे तो बड़े राजपूत बने घूमते होआंखों के सामने ही दो लड़कियों से छेड़खानी हो रही है, खुलेआम, और तुम संत बने प्राणायाम कर रहे हो। उठो, कुछ करो नहीं तो बस से उतर जाओ और शर्म से मर जाओ, नीच इंसान, तमाशबीन। इतनी ठंड में भी शरीर पसीने से भीग गया, कॉलर के नीचे गर्दन पर गर्मी महसूस होने लगी, कान लाल हो गए।

यह सब बस कुछ सेकंडों के भीतर ही हुआ। डरी हुई लड़कियां चीख रही थीं। बुढ़िया भी चिल्ला रही थी, बदमाश लड़कों से विनती कर रही थी, बेटा इन लड़कियों को छोड़ दो, तुम्हारी भी मां-बहन होंगी। यात्रियों से कह रही अरे कोई तो उठो, इनको बचाओ। लड़के उस बुढ़िया को भी डपट देते थे। उस समय क्या शब्द बोले थे, यह तो अक्षरशयाद नहीं लेकिन मैंने उन लड़कों को तेज आवाज में लड़कियों से दूर होने और बस से नीचे उतर जाने को कहा। कंडक्टर की ओर देखकर चिल्लाया, बस को मंदिर मार्ग थाने की तरफ मोड़ लो। कंडक्टर ने मेरी बात अनसुनी कर दी।

लड़कों का स्टॉप शायद पीछे ही छूट गया था, मुझे घूरते हुए वह आगे के दरवाजे से उतरने लगे। ट्रैफिक में फंसी बस बमुश्किल रेंग रही थी। उतरते-उतरते, उनमें से कुछ लड़के पीछे के दरवाजे से फिर बस में चढ़ने लगे, शायद यह सोचकर, कि जाते-जाते एक बार और लड़कियों को मजा चखा दिया जाए। पानी सर से ऊपर गुजर चुका था। मैं पीछे के गेट पर ही खड़ा था। मैंने कहा, चलो अब बहुत हो गया, भागो यहां से। उनमें से एक बोला, साले, तू बड़ा ठेकेदार बन रहा है, बहन के... उतर नीचे, तेरी....। मेरा दोस्त हॉलैंड से मेरे लिए जूते खरीद कर लाया था। काफी भारी और मजबूत। मन ही मन सोचा, जूते का सही इस्तेमाल आज ही होना है। सबसे नीचे के पायदान पर खड़े उस लड़के के सीने पर एक जबर्दस्त ठोकर मारी। वह हवा में उड़ता हुआ सड़क पर जा गिरा, उठा नहीं। मेरा दिल धड़क कर रह गया, कहीं मर न जाए, इतनी जोर से क्यों मारा!

अपने साथी की यह हालत देखकर बाकी तो मेरे खून के प्यासे हो गए। दो-तीन पीछे के दरवाजे से और बाकी दौड़कर आगे के दरवाजे की ओर लपके, शायद यह सोचकर कि बस में घेर कर इस चश्मे वाले की मरम्मत की जाए। पीछे के दरवाजे से मैंने उनको घुसने नहीं दिया। अंधाधुंध किक बरसाता गया। जब वह ऊपर नहीं चढ़ पाए तो सड़क के किनारे से पत्थर उठा कर फेंकने लगे। खुशकिस्मती से, उनके पत्थर किसी को नहीं लगे। तब तक आगे के गेट से चढ़कर दो-तीन लड़के बस में घुस गए।

बुढ़िया चीख रही थी, कोई तो उठो, वह लड़का अकेले इतने लोगों से लड़ रहा है, कोई तो साथ दो। जो लड़के अंदर घुसे, शायद वे भी पीछे के दरवाजे पर अपने साथियों की हालत देखकर घबरा गए थे। मुझे मारने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उनके हाथ, उनका साथ नहीं दे रहे थे। एक के हाथ में मेरा स्वेटर आ गया तो वह गले से नीचे तक बीच से फट गया। एक-आध मुक्के पीठ और कंधे पर मुझे पड़े। लेकिन अब मेरा डर निकल चुका था। तुम दो मारोगे तो मैं चार मारूंगा, यह सोचकर दनादन हाथ और लात चलाए पड़ा था। फिर शायद उन लड़कों की हिम्मत जवाब दे गई। तब तक बस भी रफ्तार पकड़ चुकी थी। लड़के मुझे गालियां देते हुए भाग रहे थे। दिल्ली की बस में लड़कियों से छेड़छाड़ की एक और खबर बनते-बनते रह गई

यह कहानी बताने का मकसद

यह घटना पांच साल पहले की है, शायद दोबारा ऐसा वाकया मेरे सामने हो तो मैं ऐसी हिम्मत न दिखा पाऊं। लेकिन यदि आप युवा हैं तो फिर तमाशबीन मत बनिए, चुप मत बैठिए। एक सच्चा आदमी दसियों बदमाशों पर अकेले ही भारी है। यह मत सोचिए कि मुझे क्या होगा। जैसे झूठ के पांव नहीं होते वैसे ही गुंडे-बदमाशों के भी पांव हिम्मत वालों के सामने उखड़ जाते हैं। यह भी मत सोचिएगा कि वह आपकी बहन नहीं लगती। कल को आपकी बहन के साथ ऐसा हुआ तो और लोग भी ऐसा ही सोच लेंगे। उम्मीद है निराश नहीं करेंगे। नहीं तो क्या है, आप भी गाना गाइए, यह बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती... और कोसते रहिए शीला दीक्षित से लेकर युद्धवीर सिंह डडवाल को।

सूचनाओं का सफर-घोटाला रथ से खजाना रथ तक


जयपुर का ऐतिहासिक स्टेच्यू सर्कल इस बात का साक्षी है कि सन् 1997 मेंे इसी स्थान से पहली बार एक अनूठी ’घोटाला रथ यात्रा‘
प्रारम्भ हुई थी, यह वह वक्त था जब एक दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टी के बड़े नेता द्वारा ’भय, भूख और घष्टाचार‘ के खात्मे के लिए रथ यात्रा निकाली गई थी। यह गांधी टोपी और भगवा स्कार्फ बांधे राजनेता द्वारा किया गया नाटक था जो देश में पारदर्शिता के अभाव मेंे हो रहे घोटालों की बात करता था। रथ पर सवार नेता राजवाणी राज की वाणी बोलते हुए कहता है ’’कुछ मेरे राजनीतिक विरोधी घष्टाचार-घष्टाचार चिल्लाकर माहौल बिगाड़ रहे है जबकि घष्टाचार तो देश की आत्मा है। यह कर्मचारियों का नाश्ता और हम नेताओं की खुराक है, अगर खुराक पूरी नही मिली तो नेता कमजोर हो जाएगा, नेता कमजोर, तो देश कमजोर ! फिर देश गुलाम हो जाएगा।‘‘ इस व्यंग्य रचना ने देश भर में विगत एक दशक तक जमकर विमर्श का माहौल बनाया तथा लोगों को सोचने- समझने के लिए विवश किया। इस घोटाला रथ के जरिये यह बताने की कोशिश की गई थी कि अन्तत: जनता को ही आरटीआई कानून का इस्तेमाल करके घष्टाचार का खात्मा करना होगा। लेकिन घोटाला रथ अब खजाना रथ में बदल गया है। यह रूपांतरण भी स्टेच्यू सर्कल पर ही सम्भव हुआ है। दोनों रथों पर नेता की भूमिका निभाने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी शंकर सिंह के शब्द - ’’घोटाला रथ आम जन की खजाना देखने की मांग को रेखांकित करता था, आज जब सूचना का अधिकार मिल गया है और हम खजाना देख पा रहे है तो अब हम सवाल उठा रहे है कि यह खजाना किसके काम आ रहा है?‘‘
खजाना रथ जनता के पैसे का हिसाब देता हुआ चलता है। इससे ’’हमारा पैसा-हमारा हिसाब‘‘ तथा ’’देश की जनता मांग रही है पाई-पाई का हिसाब‘‘ जैसे नारों को सार्थकता मिलती है । आरटीआई के लागू होने की पंचवर्षीय यात्रा के मौके पर ईजाद किया गया ’खजाना रथ‘ व्यवस्था में मौजूद घष्टाचार और प्रशासनिक जवाबदेही पर भी जोरदार व्यं ग्य करते हुए सरकार की कार्यपद्धति पर सवाल खड़ा करता है। आजकल राजस्थान में सरकारी कार्मिकों के वेतन भत्ता और पेंशन  के तथ्यों को लेकर जोरदार बहस छिड़ी हुई है। राजस्थान के मजदूर पूछ रहे है कि इन सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह दोगुनी कैसे हो गई। सांसदों, विधायकों ने अपने वेतन भत्ते तिगुने कैसे कर लिये? जबकि मजदूर की मजदूरी तो पिछले तीन वषा से 100 रुपये पर ही अटकी हुई है। जनता के ये सवाल सत्ता और नौकरशाही को असहज करने के लिए काफी है। लेकिन यह सूचना के अधिकार की ही ताकत है कि जनता को वास्तव में अपने मालिक होने का अहसास इस लोकतंत्र में होने लगा है, वरना तो उसकी नागरिकता केवल कागजों तक ही सीमित थी। सूचना के अधिकार की मांग का संघर्ष तथा उसको प्राप्त करने के सुखानुभव के पश्चात इसकी सफल क्रियान्विति के लिए हो रहे सतत् संघर्ष की इससे बेहतर मिसाल कहां मिलेगी? मजदूर हक सत्याग्रह ने नेताओं और अफसरशाही को जवाबदेह बनाने के लिए जवाबदेही आयोग बनाने की मांग की है। साथ ही देश का पहला ’मजदूर वेतन जन आयोग‘ भी गठित कर लिया है जो मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की सिफारिश सरकार से करेगा।
     

कोऊ नृप होए हमें ही हानी..


दोस्तो, कई महीनों से यह ब्लॉग लिखने का विचार दिमाग में था। शीर्षक सोच रखा था लेकिन एक तो शब्द एक-दूसरे से नहीं जुड़ पा रहे थे और दूसरा, करीब दो महीने से एक कैंपेन में जुटा हुआ था। तो पहले उसके बारे में ही आपको अपडेट कर दूं। आपको याद होगा कि अगस्त महीने में इसी ब्लॉग के जरिए ‘कॉमनवेल्थ झेल- काली पट्टी कैंपेन’ नाम से एक अभियान की शुरुआत हुई थी। हमारा मकसद था कि कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर ऐतिहासिक लूट का विरोध किया जाए, और चारों तरफ से इसके विरोध में उठ रही आवाजों को एक मंच पर लाया जाए। काफी हद तक हम अपने मकसद में कामयाब भी हुए।

हजारों लोग इस कैंपेन से जुड़े हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। इनमें कई नामी-गिरामी लोग, पत्रकार, साहित्यकार, कारोबारी, शिक्षाविद, समाजसेवी और अलग-अलग क्षेत्रों से लोग शामिल हैं। शुरुआत में कुछ लोगों ने इस मुहिम का विरोध किया और मजाक भी उड़ाया। कुछ ने पूछा, कि इससे क्या फर्क पड़ेगा या फिर देश में सारे ही भ्रष्ट हैं तो हम इस मुहिम के जरिए आखिर क्या हासिल कर लेंगे? लेकिन पानी बहता है तो अपना रास्ता खुद खोज लेता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता इसलिए पहली चुनौती थी कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस मुहिम में जोड़ा जाए। सुबह सोकर उठने से लेकर रात के बारह-एक और कभी-कभी तीन-चार बजे तक, लोगों को जोड़ते रहे, उन्हें इस कैंपेन के बारे में बताते रहे। फिर लोगों को भी इसमें रुचि आने लगी। कई लोग इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। इस कैंपेन के बारे में युवाओं में जागरुकता फैलाने के लिए हम जेएनयू और डीयू जैसे संस्थानों में गए और स्टूडेंट्स से मिले।

हमने इस कैंपेन से जुड़े स्टिकर छपवाए और लोगों में बांटे। साथ ही दिल्ली, मुंबई, चेन्नै, पुणे, हैदराबाद समेत देश के कई शहरों से लोगों ने हमें ईमेल किए, और हमने उन्हें ये स्टिकर कूरियर के जरिए भेजे। फेसबुक के अलावा हमने इस कैंपेन को ब्लॉग और ट्विटर पर भी पहुंचाया। धीरे-धीरे मीडिया में इस कैंपेन के बारे में खबरें छपने लगीं। कई प्रमुख भारतीय और विदेशी अखबारों में इस कैंपेन की चर्चा हुई।

कुछ मित्रों ने आशंका जताई कि गेम्स के साथ ही यह कैंपेन खत्म हो जाएगा। गेम्स खत्म हो गए लेकिन हमारा कैंपेन अब भी जारी है। बल्कि, अब तो यह पहले से ज्यादा मुखर हुआ है। क्योंकि हमारा विरोध खेल या खिलाड़ियों को लेकर नहीं, गेम्स के नाम पर मची अंधेरगर्दी के खिलाफ है। और यह तबतक चलेगा जबतक असली दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होती। रास्ता लंबा है लेकिन बड़े बदलाव रातोंरात नहीं होते। उनके लिए धैर्य और परिश्रम की जरूरत होती है। दो दिन पहले इसी संबंध में जाने-माने आरटीआई ऐक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल से मुलाकात हुई। इस मीटिंग में कई अन्य सोशल ऐक्टविस्ट और प्रबुद्ध जन शामिल हुए और यह राय बनी कि कॉमनवेल्थ में लूट को फौरी मुद्दा बनाकर करप्शन के खिलाफ एक देशव्यापी अभियान चलाया जाए। जल्दी ही यह अभियान शुरू हो जाएगा और उम्मीद करनी चाहिए कि देश के जागरुक नागरिक, सरकार को इस बारे में ठोस कदम उठाने पर मजबूर कर देंगे।

वापस लौटता हूं उस बात पर, जो कई दिनों से कहना चाहता था। अखबारों में 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटालों की खबरें आना कम हुईं तो एक नया घोटाला सामने आ गया। मुंबई में आदर्श हाउसिंग सोसायटी मा���ले में नियम तोड़े-मरोड़े गए और करोड़ों की कीमत के फ्लैट कौड़ियों के भाव कुछ खास लोगों को मिले। इनमें दो सेना के पूर्व प्रमुख, सेना के ही कई वरिष्ठ अफसर, कई पार्टियों के नेता और सिविल सर्वेंट शामिल हैं। शहीदों की विधवाओं के नाम पर बनाई गई इस सोसायटी में एक फ्लैट राज्य के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की स्वर्गीय सास के नाम पर भी है! नेता और अफसर तो बदनाम हैं भ्रष्टाचार के लिए लेकिन सेना के पूर्व प्रमुख…?

कॉमनवेल्थ में घोटालों के लिए सबसे ज्यादा आरोप सुरेश कलमाड़ी पर लग रहे हैं। कलमाड़ी इंडियन एयर फोर्स में अफसर रहे हैं... गेम्स में कई और गड़बड़ियों के लिए कांग्रेस के नेता तो निशाने पर हैं ही, बीजेपी के भी कई लोग इसमें फंसे हैं। गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों के दौरान इतने मजदूर मरे, हजारों लोगों को उनकी जगह से बेदखल करके दिल्ली के एक सूनसान कोने में फेंक दिया गया लेकिन मजदूर और शोषित वर्ग की ठेकेदार लेफ्ट पार्टियों का शायद ही कोई विरोध देखने को मिला।

कर्नाटक में माइनिंग माफिया रेड्डी भाइयों के धन और बाहुबल के आगे सीएम भी कांपते हैं। ये भाई जो चाहते हैं वह करते हैं और पूरा प्रशासन उनकी जेब में रहता है। इन लोगों के बीजेपी के कई बड़े नेताओं से संबंध हैं और वे जब चाहते हैं अपनी ही राज्य सरकार हिला देते हैं। कर्नाटक में लोहे की खदानों के अवैध दोहन से उन्होंने अरबों रुपये की संपत्ति बनाई है और अपने गुंडों की सेना तैयार कर ली है जिनसे पुलिस भी घबराती है।

ये कुछ उदाहरण मात्र हैं, यह बताने के लिए कि आम आदमी का सगा कोई नहीं है। कांग्रेस वाले करप्शन के उस्ताद हैं तो बीजेपी वाले भी पीछे नहीं। और बदलते जमाने में अपनी प्रासंगितकता खोज रही लेफ्ट पार्टियों शायद अब ‘ऐतिहासिक गलतियां’ दोहराती ही रहेंगी और इतिहास बन जाएंगी। बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि सेना में भी (खासकर अफसरों के स्तर पर) भ्रष्टाचार चरम पर है लेकिन उसकी खबरें आम तौर पर मीडिया में नहीं आ पातीं। सेना का सब सम्मान करते हैं लेकिन लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसायटी और सुकना जमीन घोटाले जैसे मामलों को देखते हुए सेना पर भी भरोसा कम होता रहा है।

आपको याद होगा, कुछ दिनों पहले पूर्व विधि मंत्री और प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के 16 में से 8 चीफ जस्टिस, भ्रष्ट थे। आरोप बेहद गंभीर था और शायद शांति भूषण पर इसके लिए अदालत की अवमानना का मामला बनता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नी-जर्क रीऐक्शन की बजाय इसे बेहद संजीदा और परिपक्व तरीके से लिया। शायद शांति भूषण के आरापों में रत्ती भर सचाई रही होगी तभी कोई उनके खिलाफ कार्रवाई करने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाया। कहने का मतलब यह है कि न्याय की सर्वोच्च संस्था के कुछ लोग भी संदेह से परे नहीं हैं। फिर हमारा रहनुमा कौन है?

आज जेपी होते, तो मौजूदा हालात पर क्या करते-कहते?


यह कयास ही लगाया जा सकता है. लोहिया (कल जिनकी पुण्यतिथि है) ने दधीचि बन आहुति दीतो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं. पहली बार नौ राज्यों में. बिहार में भी. इधर सरकार बन रही थी. उधर लोहिया जी दक्षिण भारत में छुट्टी मनाने गये. उनकी रुचि नहीं थी कि सरकार गठन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें. मनपसंद लोगों को गद्दी दिलाएं. तब बिहार सरकार के बड़े गैर कांग्रेसी नेताओं ने भूपेंद्र नारायण मंडल से बार-बार आग्रह कियाआप मंत्री बन जायें. पर वह राजी नहीं हुए. वह अत्यंत त्यागी और तपस्वी समाजवादी माने गये. उनका तर्क थामैं राज्यसभा सदस्य हूं. मैं  कैसे राज्य में भी मंत्री बनूंयह लोहिया जी की नीतियों के खिलाफ है. अंतत लोगों ने बीपी मंडल को तैयार किया. और बिहार में मंत्री बना दिया.

बीपी मंडल जी लोकसभा के सांसद थे. बीपी मंडल
जब दिल्ली गयेतो लोहिया जी ने संदेश भिजवायाइस्तीफा दे दो. जहांजिस काम (लोकसभा) के लिए जीते होवह करो. वह छह महीने मंत्री रहे. वह चाहते थे कि उन्हें एमएलसी बना दिया जाये. लोहिया जी सहमत नहीं हुए. उन्हें जाना पड़ा. सरकार भी गिरी. 33 विधायकों ने मिल कर शोषित दल बना लिया. इसी तरह केरल में थानु पिल्लई  की अपनी सरकार की लोहिया जी ने बलि दी. सिद्धांत के आधार पर. वहां गोलीकांड हुआ था. लोहिया मानते थे कि दल के सिद्धांतों के अनुप ही दल के सदस्यों को चलना चाहिए.

ऐसे अनेक प्रसंग हैं. ये तथ्य जब आज के लोहियावादियों को आप याद दिलायेंगे
तो वे नहीं मानेंगे. उनके कर्मवचन व जीवन में अब बड़ा फासला है. अन्य दलों की तरह.

इसी तरह
आज जेपी आंदोलन से निकले नेता देश व बिहार का भविष्य गढ़ रहे हैं.

पर
क्या उन्हें आज जेपी या जेपी की बुनियादी बातें (जिन्हें लेकर आंदोलन हुआजिसकी लहर पर आसीन होकर ये सत्ताढ़ हुए) स्मरण हैं?

मसलन
जिस जेपी ने भ्रष्टाचार से बेचैन और उद्विग्न होकर 74 के आंदोलन की रहनुमाई कीउस भ्रष्टाचार मुद्दे पर उनके चेले क्या सोचते हैंक्या करते हैंयह उनके लिए मुद्दा है भी या नहींइसी तरह उन्होंने जाति तोड़ो अभियान चलाया. जनेऊ तोड़ो का आह्वान किया. क्या आज उनके शिष्य उसी रास्ते पर हैंया जाति की राजनीति को और मजबूत प दे रहे हैंलोहिया के लिए वंशवाद अभिशाप था. देश के लिए. राजनीति के लिए. इसलिए वे नेह परिवार के खिलाफ अधिक तल्ख रहेआजीवन.

क्योंकि उस व नेह परिवार ही राजनीति में वंशवाद का प्रतीक था. जेपी भी शालीन तरीके से राजनीति में इस बढ़ते परिवारवाद-वंशवाद के खिलाफ थे. आज दोनों होते
तो खासतौर से बिहार के हालात देख कर क्या कहतेया करतेदोनों के कर्मउनके अपने सिद्धांतों के अनुप रहे. इसलिए इन मुद्दों पर इनकी राय जाहिर है. वे फ़िर बगावत और बदलाव के रास्ते चलते. जिन्हें गढ़ाबनाया उनके फ़िसलन देख कर जेपी-लोहिया अपने ही गढ़ेबनाये और विकसित किये गये लोगों के खिलाफ़ खड़े होते. यह दोनों के जीवन और सिद्धांतों का निष्कर्ष है.

आज बिहार में किस हद तक यह बेशर्मी पहुंच गयी है
राजनीति को नेताओं ने निजी जागीर समझ ली है. राजनीति में यह नये किस्म का जातिवाद है. पुराने राजाओंसामंतों और जमींदारों की तरह राजनीति में वंश के आधार पर उभर रहे नये युवराजोंराजाओंसामंतों व जमींदारों का नया वर्ग. जैसे राजाओंसामंतों व जागीरदारों में अलग-अलग जातियोंसमूहों के लोग थे. पर उनका वर्गहित एक था. उनके स्वार्थ एक थे. इसलिए वे एकजुट रहे. यही हाल बिहार की राजनीति में दिखायी दे रहा है. पार्टियां या तो परिवारों की लिस्टेड कंपनियां हैंया बड़े नेताओं के डिक्टेट मानने को मजबूर. मांझी के एक देहाती किसान कहते हैं. हालत यह है कि बाप कहींमेहरारू कहींबेटा कहीं. सब सांसद या विधायक बनना चाहते हैं.

अब बिहार के इन चुनावों में मतदाताओं को भी अपना एक वर्ग बनाना चाहिए. जाति
धर्म,क्षेत्रसंप्रदाय से ऊपर उठ कर. जब लोकसभा में तनखाह व सुविधा बढ़ाने के लिए सब एकजुट हो सकते हैंतो जनता क्यों नहीं एकजुट होअपने हालात बेहतर करने के लिए. हर बिहारी इन चुनावों में दल और नेताओं को तीन-चार मापदंडों पर परखे. पहलापर्सनल इंटीग्रिटी और परिवारवाद. कोई नेता अपनी पार्टी को निजी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाता है या वह दलों के कार्यकर्ताओं को भी महत्व देता हैवह अपनी पूरी राजनीति अपने बेटेभाई-बंधुसाला-समधीपत्नी या रिश्तेदारों के लिए तो नहीं कर रहा?

भविष्य में लोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा बननेवाला है. हर पार्टी के जो बड़े नेता हैं
वे ओर्थक प से भी अत्यंत सबल व ताकतवर हो गये हैं. चुनाव पैसों का खेल हो गया है. साफ है कि जो राजनेता अपने-अपने दलों के सूरमा हैंवोट बटो हैंआलाकमान हैंजो संपत्तिवान हो गये हैंअगर वे अपने बेटेबेटियों या पत्नी या स्वजन को टिकट दे-दिला कर उनका भविष्य सुरक्षित करते हैंतो राजनीति में कॉमनमैन के लिए दरवाजे बंद होंगे. सत्ता उनके हाथधन उनके पास. कोई मर्यादासंकोच या मूल्य नहीं. अंगरेजी में यह डेडली कंबीनेशन (मारक गुट) कहलाता है.

यह राजनीति में उभरता नया वर्ग है. जेपी ने बहुत पहले चुनाव सुधार का अभियान चलाया
,क्योंकि वह मानते थे कि चुनाव लगातार महंगे और सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर जा रहे हैं. यही बात अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है. एक सामान्य कार्यकर्ताचाहे वह कितना ही ईमानदारत्यागी या तपस्वी होअब शायद ही राजनीति में शीर्ष तक जाये. धन-बल के अभाव में.

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की बात जेपी 
60 के दशक में करते थे. उस व संथानम कमेटी बनी,केंद्र सरकार की पहल पर. चुनाव और भ्रष्टाचार वगैरह पर अंकुश लगाने के लिए. पर कुछ नहीं हुआ. अंतत राजनीतिज्ञों की कथनीकरनी से निराश जेपी ने जीवन के अंत में बड़ा बिगुल फूंका. भ्रष्टाचार के खिलाफ बदलाव का आवाहन. संपूर्ण क्रांति की बात. कहां हैं ये चीजें आजउनके चेलों के जीवन या राजनीति मेंया उन दलों में जो उनका नाम भजते हैं?

पटना में सात अक्‍टूबर को एक कार्यक्रम हुआ. विजयकृष्ण शामिल हुए राजद में. वहां पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह भी थे. उनका बयान आया. साइकिल वितरण योजना को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है. पर यह योजना गांवों में इज्जत पर चोट पहुंचा रही है. इस सरकार का नाश तय है.

राजद और जदयू के बीच सत्ता संघर्ष है. इसलिए दोनों के आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह हैं. चुनावी जंग में सब जायज है. साइकिल योजना सही है या गलत है
यह बहस का विषय हो सकता है. परइस योजना से गांवों की इज्जत पर चोट पहुंच रही है, (अगर यह बयान सही है)तो यह विस्मयकारी बयान है. इसका संकेत लड़कियों को साइकिल देने से है. लड़कियों के स्कूल जाने से है. घरों से निकलने से है.        

राजनीति या समाज में औरतों की सार्वजनिक साङोदारी पर लोहिया या जेपी के क्या विचार थे
यह याद करने की जरत नहीं. लोहिया तो पूरी औरत जात को ही एक अत्यंत उपेक्षित,पीड़ितशोषित व पिछड़ा वर्ग मानते थे. चाहे वह ऊंची जाति की हो या पिछड़ी जाति की.        

कुछ दिनों पहले
नालंदा के एक सजग मतदाता मिले. उन्होंने पहले अपना नाम बतायाफलां यादव. बोले-नीतीश राज्य में सड़कें अच्छी बनी हैं. स्कूल-कॉलेज बन गये. विकास के काम हो रहे हैं. चौकस सुरक्षा है. वह सरकार के कामों के प्रशंसक हैंयह खासतौर पर उल्लेख करते हैं. तब अपनी असली बात बताते हैं. वह साइकिल योजना से सख्त नाराज हैं. उनका कहना है कि गांवों की लड़कियां बहक (उनके ही लब्ज) गयी हैं. क्राइम की घटनाएं इसी कारण बढ़ी हैं. इसलिए वह सरकार के कामों से खुश रहने के बाद भीसरकार के पक्ष में वोट नहीं देंगे.

प्रभुनाथ जी के बयान को पढ़ कर कुछ दिनों पहले नालंदा के उ मतदाता की यह बात भी याद आयी.

ये बयान क्या बताते हैं
आज भी बिहार का मानस कहां खड़ा हैयह एटीट्यूडअप्रोच या ओपिनियन किसी एक या दो में होऐसा नहीं है. यह संकेत है कि कैसी थिंकिंग आज भी बिहारी समाज में है यह हर जातिधर्म व क्षेत्र में मिलेगी. क्या इस रास्ते बिहार एक आधुनिक राज्य बनेगाबहस इस पर हो. चुनाव में घर-घर तक यह बहस पहुंचे.

याद आया
, 1972 में एनसीसी कैडेट था. ऑल इंडिया एनसीसी कैडेट प्रशिक्षण के लिए चयन हुआ. पहली बार हमने बेंगलुरु देखा. बनारस के बाद पहला कोई बड़ा महानगर या शहर. उस शहर की 1972 की वह बात भूलती नहीं.
तब वहां लड़कियां स्कूटर चलाती थीं. हमलोग शहर घूमने गये. हम उत्तर भारत या खासतौर से हिंदी राज्यों के छात्रों के लिए यह अजूबा था. कल्चरल शॉक. हम एक ठेठ देहाती और सामंती परिवेश से गये थे. भले ही हमारे यहां शहर रहे होंपर कमोबेश औरतों के बारे में या लड़कियों के बारे में हमारा मानस यही था. हम उन्हें परदे में देखने के आदी थे. चहारदीवारी में कैद. बेजुबान. बेंगलुरु देखने के पहले छपराबलिया और आरा देख चुका था. पटना,बनारस या इलाहाबाद भी. कहीं एक लड़की स्कूटर की सवारी करते नहीं पाया था.
आज क्यों बेंगलुरु सबसे विकसित शहरों में से एक हैक्योंकि उस समाज ने बहुत पहले औरतों को साङोदारी देने की पहल की. परदा तोड़ा. शिक्षा से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में बराबर का दरजा. आज बेंगलुरु कहां हैऔर कहां खड़ा है पटना या पुराना पाटलिपुत्र?पाटलिपुत्र इतिहास का गौरव है. पर वह अतीत बन चुका है. अतीत की समृद्धि के बावजूद देश के ही नक्शे में कहां खड़ा है बिहार या पटनाआज बेंगलुरुअमेरिका के सिलिकन वैली के बाद पूरब का सिलिकन वैली कहा जाता है. सिलिकन वैली क्या है?
कैलिफोर्निया के उस इलाके में जाकर देखने से अहसास हुआ. कैसे एक जगह ने पूरी दुनिया का भविष्य बदल दियाटेक्नोलॉजी में नित नये इनोवेशन या खोज. वे खोज जो दुनिया का भविष्य तय कर रही हैं. सूचना क्रांति का असर आज गांव-गांव तक है. टेक्नोलॉजी ही दुनिया का भविष्य तय कर रही है. ठेठ और गंवार भाषा में कहेंतो सिलिकन वैली उस टेक्नोलॉजी (जो दुनिया का भविष्य तय कर रही है) की राजधानी है. दुनिया में मान लिया गया है कि पूर्वी महाद्वीप की सिलिकन वैली बेंगलुरु है. सिर्फ ऐशया की ही नहीं.

बेंगलुरु को दुनिया में यह स्टेटस मिला. उसके कई कारण हैं. पर एक महत्वपूर्ण और निर्णायक कारण है
औरतों का आगे आना. आधी आबादी को खुली हवा में सांस लेने का अवसर न देकर आप कैसे विकास कर सकते हैंआगे बढ़ सकते हैंआधा शरीर सुन्न रहे,तो आप स्वस्थ कैसे रह सकते हैंबेंगलुरु का महत्व जानना होतो कुछेक वर्षो पहले प्रकाशित थॉमस फ्रीडमैन की विश्व प्रसिद्ध व चर्चित पुस्तक पढ़ेंद वर्ल्ड इज फ्लैटइसके अलावा सामाजिक प्रगति सूचकांक में या मानव विकास सूचकांक में कहां खड़े हैं बिहार और कर्नाटक.
यह 21वीं सदी की दुनिया नयी है. अब पुराने मानक कारगर नहीं. क्लासिकल अर्थशास्त्र मानता था कि उत्पादन के पांच महत्वपूर्ण कारक हैं- लैंडलेबरकैपिटल वगैरह. इनसे ही संपत्ति का सृजन (कैपिटल फ़ार्मेशन) होता है. अब ये मानक टूट गये हैं. यह नॉलेज एरा है. इस एरा का महत्व समझिएएक उदाहरण से. पहले तयशुदा था कि राजा का लड़का राजा,जमींदार का लड़का जमींदारइसी तरह उद्योगपति का बेटा उद्योगपति. भले ही वह अयोग्य व नाकाबिल होपर इस नॉलेज एरा ने इस अघोषित पुष्ट परंपरा को ध्वस्त किया है. एक पीढ़ी में ही नारायण मूर्ति या अजीम प्रेमजी दुनिया के बड़े उद्योगपतियों में शुमार होते हैं.

उनके बाप-दादे या पुरखे उद्योगपति नहीं थे. मामूली परिवार. पैसे कम होने के कारण नारायण मूर्ति आइआइटी में पढ़ाई नहीं कर सके. पर आज दुनिया में इन लोगों की क्या हैसियत और रुतबा है
कैसे हैएक प्रमुख वजह है. अपनी नॉलेज संपदा का इस्तेमाल इन्होंने इस नॉलेज एरा में किया. अत्यंत ईमानदारी और मूल्यों के साथ जीनेवाले ये लोग हैं. इस तरह नयी टेक्नोलॉजी ने अनेक मामूली लोगों को करोड़पतिअरबपति बना दिया है. ईमानदार तरीके से. घूस और भ्रष्टाचार के बल उनकी हैसियत नहीं बनी.
परिवर्तन की यह हवा बिहार या हिंदी इलाकों तक क्यों नहीं पहुंचीक्यों भविष्य तय करनेवाली राजनीति या चुनाव में ऐसे प्रसंग या सवाल नहीं उठ रहेकम-से-कम जनता तो ये सवाल उठाये. हर दल से पूछेहर विधायक से जो वोट मांगने आयेयह सवाल करे कि हमारा राज्य देश का सबसे पीछे का राज्य क्यों बन गयाक्यों हमारे यहां नयी टेक्नोलॉजी का विकास नहीं हुआहम दक्षिण के राज्यों से क्यों पीछे हुएक्यों हमारे यहां के छात्र अन्य राज्यों में पढ़ने के लिए और अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैंफ़िर पूछे कि इस राज्य को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए क्या ब्लूप्रिंट है आपके पासइसके बाद वोट बहुत सोच-समझ कर दें.
इस चुनाव में बहस का विषय हो कि हमारे नेताओं का मानस बदलेगा या नहींअगर,औरतों समेत हर निर्णायक सवाल पर पुराने तौर-तरीके से हम सोचेंगेतो कहां पहुंचेंगे?जनता यह पूछेनहीं पूछेगीतो फिर वह ठगी जायेगी. छली जायेगी. देहात में लोग कहते हैं,अब पछताये होत क्याजब चिड़िया चुग गयी खेत. एक बार वोट लेकर जब नेता व दल फुर्र हो जायेंगेतब मतदाताओं के हाथ क्या होगा.

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

नेट के फराक सलवार मछरदानी के

कलयुग के फैशन कमाल कईले बा हो  दादा 
दोष बा ज़माना के कि दोष बा जवानी के 
नेट  के फराक सलवार मछरदानी के 
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फ़ारेले पीएम सियेले सीएम 
सुई में डोरा बाकी डालेले   डीएम 
एमपी एमेले भी कमाल कईले बा हो दादा
हो गईल देहात जवन हाल राजधानी के 
नेट...................................
--------------------------------------------------
होटल में बियर ढारेली   डीअर 
बार्डीगार्ड   निजी बाकी रहेला नियर
होटल के आदत अब बेहाल कईले  बा हो दादा
बनेला शराब खांटी गंगा जी के पानी के 
-----------------------------------------
कहीं बा काटल कहीं बा फाटल
कमर के नीचे बाकी दिल बाटे  साटल
मुकेश समाज से सवाल कईले बा हो दादा 
दिनों में फुलाता काहे फ़ूल रातरानी के 
नेट ........................................

वो तो रात में ही बिक गई


घुंगरू की छनक -
और मेरा मन,
एक साथ बजे आज..
फिर मैंने,
भोर का तारा भी देखा,
और मुल्ले की पहली-
अज़ान भी सुनी..
लगा किसी और युग में,
पहुँचा हूँ .
ख़ुदा को करीब से
जानने का मन किया.
गली के उस पार,
दूसरी तरफ ..
तवायफखाने में,
कुछ बच्चों की -
आवाज़ सुनी तभी.
घुंगरू की छनक-
अब बंद थी ..
एक पल को लगा, ख़ुदा -
करीब आ गया है शायद .
पर अगले ही पल,
उन मासूमों की चीख़ सुनाई दी,
लगा के उस नूर की दुनिया में,
सब थमता जा रहा है ..
न जाने क्यूँ ?
हवस से भरे पुजारियों का कारवां,
बढ़ता जा रहा है.
अब सोचता हूँ ,
कुछ नहीं रखा -
नई सुबह में!
वो तो रात में ही बिक गई ..
अब सिर्फ सोने में ही ..
सबकी भलाई है.

तरक्की या फिर गम का मौका


खूबसूरत अंगुलियों में स्टाइल से फंसी हुई सिगरेट और दूसरे हाथ में जाम या फिर एक बेहद ही खूबसूरत लड़की अपने ही अंदाज में शराब को सिप करके पीते हुए और साथ ही सिगरेट का कश लगाती हुई हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों में नजर आया करती थी। जब भी महिला पियक्कड़ किरदारों का जिक्र चलेगा तब साहेब बीवी और गुलाम की मीना कुमारी का नाम लिया जाएगा। वहीं सिगरेट के धुए के छल्ले बनाने की अदा का जिक्र चलेगा तो दम मारो दम फेम जीनत अमान का नाम याद किया जाएगा। आज यही सुरा- सुट्टा कल्चर मेट्रो और महानगरों की पहचान बनता जा रहा है।
आपने आज से लगभग 10 साल पहले किसी युवती को सरेआम सिगरेट का कश लगाते हुए देखा होगा तो आपकी आंखे एक बारगी पथरा गई होंगी। सोच रहे होंगे कि ये क्या मंजर है? लेकिन आज मौजूदा परिदृश्य में एक बहुत ही मामूली सी बात लगती है। आज हर तीसरी लड़की के हाथ में सिगरेट नजर आती है। चाहे वह वर्कप्लेस या कैंटीन हो या फिर पान बीड़ी का खोखा। बस मौका मिलना चाहिए। कभी किटी पार्टियों में चाय चला करती थी और आज शराब व सिगरेट ने उसकी जगह ले ली है। आइए आज इसी सुरा सुट्टा और सुंदरियां के कल्चर पर गुफ्तगू करते हैं।
 एक वो वक्त था जब लोग चोरी छिपे शराब पीने के बाद अपने बुजुर्गों के सामने नहीं जाया करते थे। अगर किसी ने घर में शराब का नाम भी ले लिया तो उसे हिकारत की नजर से देखा जाता था और एक लम्बा लेक्चर उसे सुनाया जाता था। शराब और सिगरेट उस वक्त दो तरह के तबके में पी जाती थी। एक तो वो जो बहुत निचले तबके के कामगार लोग या फिर उच्च वर्ग के संभ्रांत लोग। मिडिल क्लास परिवार में इसे बुरी नजर से देखा जाता था। ये वो वक्त था जब सिगरेट भी चोरी छिपे पी जाती थी। मुंह और हाथ से बदबू चली जाए उसके लिए काफी जतन किए जाते थे। मुझे अभी तक याद है फिल्म “मैंने प्यार किया” का वो सीन जिसमें सिगरेट चुराने से लेकर पीने तक का फिल्मांकन और उसके बाद नायिका का नायक और उसके दोस्त को बचाने का प्रयास। उसके द्वारा स्मोकिंग छोड़ने की नसीहत। आज वही नायिका अपने हाथों में सिगरेट लिए है और अपने दोस्तों के साथ सिगरेट शेयर कर रही है। जमाना कितनी तेजी से बदला है दोस्तो।
आज यही सुरा सुट्टा इस देश की सुंदरियों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। ये सुंदरियां बड़े ही अलग अंदाज में कह रही हैं हम हैं बिंदास और जीएगे बिंदास। कॉरपोरेट सेक्टर की वर्किंग वुमेन, बड़े और रईस घराने की महिलाओं के साथ-साथ कॉलेज स्टूडेंट में भी इसके प्रति क्रेज देखा जा रहा है। इन लड़कियों का अपने फ्रेंडस के बीच में ऊंची आवाज में मस्त होकर कहना “ऑन द रॉक्स” एक मामूली सी बात हो गई है। अरे यार! चिल रहा करो! ऐसे शब्दों का सुनाई देना कोई हैरत वाली बात नहीं है। तो दोस्तो थोड़ा सा चिल हो जाओ।
 इस सुरा-सुट्टा कल्चर पर सभी का अपना अपना नजरिया है। कोई मुझ से सहमत होगा और कोई नहीं होगा। फिलहाल हम बात को आगे बढ़ाते हैं। और देखते हैं यह कल्चर कितनी तेजी से पनप रहा है और कहां कहां अपनी जड़ें जमा रहा है। किस तरह की महिलाएं और लड़कियां इसकी दीवानी हैं।
बात देश की राजधानी दिल्ली से शुरू करते हैं। आज दिल्ली एनसीआर में ऐसी कामकाजी और कॉलेज युवा छात्राओं की कमी नहीं है जो लगभग हर हफ्ते अपने दोस्तों के साथ वीकेंड पर मनोरंजन के लिए डिस्को, पब और बार में जाना पसंद करती हैं। शनिवार की रात मौजमस्ती के बाद रविवार को आराम और सोमवार से नई ऊर्जा के साथ फिर से जिंदगी की शुरुआत।
इस बारे में मैंने अपनी ही कुछ दोस्तों से बात की तो उन्होंने बताया कि वे सभी फ्रेंडस किस तरह ड्रिंक्स का प्लान बनाते हैं। सभी फ्रेंडस पहले यहां के कुछ अच्छे डिस्को, बार और पब के नाम पर डिस्कस करते हैं। उसमें से एक नाम को फाइनल करते हैं। और फिर ऑन द रॉक्स और शराब के लम्बे दौर। उसने कहा कि कभी कभी तो हमारे साथ हमारे बॉय फ्रेंड भी होते हैं इस ड्रिंक पार्टी में। यदि कभी अचानक से पीने का मूड बन जाए तो किसी सहेली या फिर कार में प्रोग्राम बना लेते हैं। मैंने उससे बड़ी उत्सुकता से पूछा, अरे एक बात तो बताओ क्या तुम्हें इस तरह से शराब और सिगरेट पीना पसंद है। तो उसने तपाक से कहा कि नहीं यार बस आदत पड़ गई और अब अच्छा लगता है। जब मैंने कॉलेज जाना शुरू किया तो वहां के नये दोस्तों ने दबाव डाल कर शौकिया पीने को कहा। उसके बाद फिर ऐसा होने लगा और धीरे-धीरे आदत पड़ गई। अब तो जब भी मन करता है मैं पी लेती हूं। बस यार कभी-कभी आत्मग्लानि होती है। लेकिन आज यह कल्चर बन चुका है। जब भी टेंशन होती है तो सुट्टा लगा लेती हूं।
सुट्टेबाजी पर मुझे अपनी एक दोस्त का अनुभव याद आ रहा है जिसे मैं आपके साथ शेयर करुंगा। उसकी मीडिया में नई-नई नौकरी लगी थी। दूसरे दिन उसके सहकर्मियों ने उससे कहा कि यार लंच के बाद 4 बजे सुट्टेबाजी के लिए चलेंगे। ना-ना करते उसे सुट्टेबाजी की आदत पड़ ही गई। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह महिलाओं के बीच सुटटेबाजी का कल्चर अपनी जड़ें जमा रहा है।
इस सुरा सुट्टा कल्चर पर सभी की अलग-अलग राय है। कुछ महिलाओं का कहना है कि मर्द क्यों पीते हैं? जब मर्द पी सकते हैं तो हम क्यों नहीं।
कुछ लड़कियों का मानना है शादी से पहले जितना एंजॉय कर सकते हैं कर लें। पता नहीं पति कैसा मिले। इसलिए खुलकर जी रहे हैं। चिल यार! एंजॉय करो और मस्त रहो। कल जाने क्या हो। कुछ लड़कियों को सिगरेट और शराब की लत इसलिए पड़ गई क्योंकि उनके पेरेंटस भी पीते हैं। और वे उनके साथ पीते भी हैं।
सुरा-सुट्टा कल्चर को लेकर अभी कुछ समय पहले एक रिपोर्ट आई थी जिसके मुताबिक बड़े शहरों की लगभग 30 फीसदी महिलाएं शराब और सिगरेट का सेवन करती हैं। जिसके पीछे एक ही ठोस वजह है और वह है महिलाओं का आर्थिक रुप से मजबूत होना। अच्छी नौकरी, मोटी सेलरी के साथ-साथ मल्टीनेशनल कंपनियों का वीकेंड कल्चर। जिसने यह बदलाव महिलाओं के जीवन में दिए। आज अमेरिकन कल्चर अपने चरम पर है। सुरा- सुटटा कल्चर ने धीरे-धीरे मध्यम वर्गीय महिलाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कामकाजी महिलाओं का कहना है कि काम का बोझ ज्यादा होने के कारण मानसिक तनाव बहुत ज्यादा होता है। यही वजह है कि सिगरेट और शराब पीने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। इन लोगों का मानना है इससे मानसिक शांति और इसके बाद फ्रेशनेस के साथ नई ऊर्जा महसूस होती है। इन महिलाओं के मुताबिक जमाना बदल चुका है। हम बिंदास होकर जीना चाहते हैं। इसीलिए बिंदास जीते हैं और बिंदास पीते हैं। जिंदगी की हर उलझन को सिगरेट के धुएं में उड़ाते चल रहे हैं।
इस सुरा सुटटा कल्चर का आलम यह है कि कोई भी मौका हो चाहे वह जन्मदिन, वेडिंग एनिवर्सरी, शादी, तरक्की या फिर गम का मौका, बस हो जाए शराब और सिगरेट। इन महिलाओं के मुताबिक सुरा और सुट्टा शरीर और मन को सुख पहुंचाने का तरीका है।
चलिए अब बात करते हैं कि किस तरह की शराब इन महिलाओं को पसंद है। इनको स्वाद में कड़वी व्हिस्की और बीयर पसंद नहीं आती है। इन्हें ज्यादातर वोदका, ब्रीजर, रेड वाइन पसंद है। कुछ ऐसी भी महिलाए हैं जो बीयर और व्हिस्की पीना पसंद करती हैं। टीन एजर्स और कॉलेज स्टूडेंट में टकीला शॉटस काफी पसंद किया जाता है। इसमें उन्हें थ्रिल मिलता है।
यहां पर सोचने वाली बात यह है कि आखिरकार महिलाओं में यह सुरा सुटटा कल्चर कैसे पनपा। वे वजह क्या रहीं जिन्होंने उन्हें इस तरह के कल्चर को अपनाने को मजबूर कर दिया। इसका साफ सीधे तौर पर कारण जो हो सकता है वो है एकाकी जीवन, घर से दूर रहकर नौकरी करना, परिवार का दबाव और बंदिशों का न होना और आर्थिक रुप से मजबूती।
वैश्वीकरण के दौर में शहरों की संस्कृति तेजी के साथ बदल रही है। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ ने शहरों की रातों को रंगीन बना दिया है। मुंबई और कलकत्ता के बाद दिल्ली एनसीआर इस तरह के कल्चर के लिए नाम रोशन कर रहा है। दोस्तों इस सुरा-सुट्टा कल्चर के चलते इन महिलाओं और युवतियों के द्वारा किए जाने वाले एक्सीडेंट को माफ कर दें क्योंकि पीने के बाद मर्द भी तो एक्सीडेंट करते हैं।

उम्मीद है कि विचारवान लोगों की एक नई खेप सामने आएगी।

अपने देश  में लोकतंत्र वाकई लहलहाने लगा है? क्या मतदाता सचमुच चुनाव को लोकतंत्र के एक उत्सव के तौर पर मनाने लगे हैं? उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के शुरुआती दौर में जो खबरें जन्मी उनसे नई उम्मीद बंधी है। एक मतदान केन्द्र पर तो वोटरों में इतना उत्साह था कि समय समाप्त हो जाने के बावजूद चुनाव अधिकारी लोगों को मतदान करने से रोकने में खुद को असमर्थ पाने लगा। दिन पहले ही ढल चुका था। शाम भी बीत गई। बिजली की व्यवस्था उत्तर प्रदेश में यों ही अपर्याप्त है। लिहाजा पुलिस जीप की हेडलाइट्स की रोशनी में मतदान जारी रहा। रात आठ बजे तक लोग वोट डालते रहे।

सिर्फ यही नहीं, कई जगहों पर तो एमबीए और इंजीनियरिंग की डिग्री लिए हुए लोग चुनावों में उतर पड़े। क्या उनका मकसद वाकई इन पंचायतों के जरिए देश की सेवा करना है? या, सियासत की भ्रष्ट बंदरबांट में अपना हिस्सा बंटाने के लिए ये लोग अच्छी नौकरियों को लात मारकर राजनीति के दलदल में कूद पड़े हैं? हिंसा की घटनाएं भी इस हताशा को बल प्रदान करती हैं। यह खून-खराबा, आरोप-प्रत्यारोप चुनावों के प्रचलित टोटके हैं। इन्हें खत्म होने में वक्त लगेगा। इन्हें तस्वीर का छोटा-सा हिस्सा मानना चाहिए क्योंकि ध्रुवसत्य है कि जब तक पढ़े- लिखे युवा आगे नहीं आएंगे तब तक हालात में सुधार हो ही नहीं सकता।
1993 में 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज कानून अस्तित्व में आया। तब से अब तक अगर पंचायतों की इस यात्रा को देखें तो परिणाम मीठे और खट्टे दोनों तरह के आए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि बहुत-सी महिलाओं, दलितों और उन लोगों को खुलकर सामने आने का मौका मिला जो शताब्दियों से वंचित थे।
मैं खुद ऐसी दलित महिला को जानता हूं जिनकी शादी बहुत अच्छे घर में हुई। शुरू से ही वे पढ़ी-लिखी और तेजस्वी थीं, पर वैवाहिक जीवन के शुरुआती डेढ़ दशक तो सिर्फ अमुक की पत्नी कहलाने में ही निकल गए। लगता था जैसे किसी ने बहते हुए दरिया को बोतल में बंद कर दिया है और उसका जल उछलने को छटपटा रहा है।
जब पहली बार उनके शहर में मेयर की कुर्सी एक दलित महिला के लिए रिजर्व की गई, तब उन्हें मौका मिला। वे चुनाव लड़ीं और जीतीं। शुरुआत के दिनों में तो उनके पति महोदय हर जगह उनके साथ नमूदार नजर आते थे, पर मामला पूरे पांच बरस का था। धीमे-धीमे वे खुद मुख्तार होने  लगीं। राजनीति की शब्दावली भी उनकी जुबान पर चढ़ गई। यह ठीक है कि वे कोई ऐतिहासिक काम नहीं कर सकीं, पर सदियों पुराने शहर की पहली महिला मेयर के नाते इतिहास में नाम दर्ज करा गईं। यही नहीं तमाम महिलाओं और वंचितों के मन में एक सपना भी जगा गईं कि देहरी को लांघा जा सकता है, दीवारों को तोड़ा जा सकता है। सितारों के आगे जहां और भी हैं।
वे यकीनन भाग्यशाली हैं, पर बहुत-सी महिलाओं को इस तरह का सौभाग्य नहीं हासिल हुआ। वे प्रधान या विभिन्न पंचायतों के अन्य पदों पर चुन तो ली गईं पर पढ़ी-लिखी न होने की वजह से पतियों ने उनका उपयोग सिर्फ अंगूठा लगवाने के लिए किया। हिंदी पट्टी के बहुत से गांवों में मैंने बड़े दुख के साथ कुछ महानुभावों की नेमप्लेट्स देखी हैं, जिन पर नाम से भी ज्यादा मोटे अक्षरों में लिखा होता है- प्रधानपति।
मुझे इन लोगों की सोच पर अफसोस होता है। वे औरत को अभी भी अपनी पोषित और घोषित संपत्ति बनाए रखना चाहते हैं। पर कब तक? गुलामी की दीवारों में दरकन आ गई है, यह हर रोज चौड़ी होगी। भरोसा न हो तो इन आंकड़ों पर गौर फरमाइए। आज देश में साढ़े दस लाख महिलाएं पंचायतों में भागीदारी कर रही हैं। कुछ और राज्यों में उनका प्रतिशत 50 होते ही यह संख्या और बढ़ेगी। कारवां चल पड़ा है। अब इसे रोका नहीं जा सकता।
आप याद कर सकते हैं। जब गांधी ने ग्राम स्वराज की बात कही थी, तब बहुतों को यह विचार बेतुका लगा था। बापू हर व्यवस्था को महिलाओं और दलितों के बिना अपूर्ण मानते थे। उनका तो यहां तक कहना था कि आजाद भारत की पहली राष्ट्रपति कोई दलित महिला होनी चाहिए। तब तो ऐसा नहीं हो सका था, परंतु बाद में इस   देश ने दलित और अल्पसंख्यक राष्ट्रपति देखे और संयोग से मौजूदा राष्ट्रपति महिला हैं।
आजादी के बाद सपने बेचने वाले राजनेताओं ने तमाम आयोग तो बनाए, पर ग्राम सुधार के लिए कोई ढंग का काम नहीं किया। कभी आरोप लगता था कि राजीव गांधी भारत के नहीं, इंडिया के प्रतिनिधि हैं, पर उन्हीं राजीव गांधी ने ग्राम पंचायतों में महिलाओं और दलितों के आरक्षण पर गंभीर पहल की। उन्होंने पहली बार यह शिद्दत से महसूस किया था कि केंद्र से चले एक रुपये में से 15 पैसे ही गांववासियों तक पहुंच पाते हैं। उनके द्वारा गठित सिंघवी आयोग पहले के आयोगों की तरह पिलपिला साबित नहीं हुआ। उसकी सिफारिश पर ही पंचायतों में सुधार लागू हो सके।
लिट्टे के आत्मघाती हमलावरों ने भले ही 21 मई 1991 को राजीव की हत्या कर दी हो, पर वे इस विचार को नहीं मार सके। सोच के बीज जब सही जगह पर बो दिए जाते हैं तो उनमें कल्ले जरूर फूटते हैं। नरसिंह राव की सरकार ने दो बरस बाद इसे अमली जामा पहनाया। तब से अब तक कारवां चल रहा है। यह बात अलग है कि हर गिलास को आधा खाली देखने वाले लोगों की नजर में यह गांवों में दलाल और ठेकेदार तंत्र पनपाने का जरिया बन गया है। इस आरोप में कुछ सच्चाई भी है, पर अगर हम गिलास को भरा हुआ देखने की प्रवृत्ति पालें, तो उम्मीद का पौधा वटवृक्ष बनता दिखता है। जिस तरह बहुत-सी जगहों पर 70 प्रतिशत से अधिक मतदान दर्ज किया गया, वह बड़े परिवर्तन का संकेत है।
हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि अभी काफी लड़ाई बाकी है। लोकतंत्र का उत्सव तत्व यदि सिर्फ चुनाव में दिखता है तो वह अधूरेपन का प्रतीक है। उत्सव से ऊर्जा पैदा होनी चाहिए और उसे अगले चुनाव तक कायम रहना चाहिए। स्वाभिमानी हिन्दीभाषियों ने इस ऊर्जा का प्रदर्शन जरूर किया है, पर उसे सिरे तक ले जाने के लिए उन्हें अभी बहुत मेहनत करनी होगी। उम्मीद है कि इन चुनावों से विचारवान लोगों की एक नई खेप सामने आएगी। राजनीति की गंगा को साफ-सुथरा होने के लिए उनकी जरूरत है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

www.alfamp3.com/watch/.../mukesh-pandey-ji-ka-new-album.html
http://www.cinebasti.com/celebrity/Mukesh-Pandey/4859/wallpapers
www.pakistan.tv/videos-mukesh-pandey-%5BQSq869YNgqs%5D.cfm
en.kendincos.net/video-rrdpdplr-mukesh-pandey-k-bhojpuri-geet.html
www.chakpak.com/video/mukesh-pandey-ka.../8325749

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

ब्रह्ममुहूर्त


ब्रह्ममुहूर्त रात्रि का चौथा प्रहर होता है। यह उषाकाल अर्थात् सूर्योदय से पहले का समय है। मनुस्मृति में कहा गया है 'ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत् धर्माथर चानु चिंतयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदत˜वार्थमेव च' अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त जो प्रात: चार से पांच बजे के बीच का समय होता है में उठकर धर्म, अर्थ और परमात्मा का ध्यान करे, कभी अधर्म का आचरण न करे। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने शरीर की शुद्धता व स्वास्थ्य रक्षा के उपाय जैसे प्रात: भ्रमण योगासन व प्राणायाम करने का शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। उषा काल में वातावरण शांत होता है और किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं रहता है। मनुष्य को ईश्वर ने नींद के रूप में एक वरदान दिया है जिससे मन, इंद्रियों व शरीर को विश्राम मिलता है और हम अगले दिन कार्य करने के लिए पूर्ण ऊर्जावान हो जाते है। मनुष्य सुख से जीवन व्यतीत कर सके इसके लिए उसका स्वास्थ्य उत्तम होना चाहिए, क्योंकि कहा गया है-'शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम्' इस समय वातावरण शांत रहता है। मन तथा मस्तिष्क भी पूर्ण नींद लेने के बाद तरोताजा रहता है। इसलिए पठन-पाठन और स्वाध्याय के लिए यह सर्वोत्तम समय है। जब हम दिन की शुरुआत ही जल्दी करते है तो हमारा पूरा दिन प्रसन्नता से बीतता है तथा जब तक अन्य लोग जागते है तब तक हमारे कार्य पूरे हो जाते है।
प्रात: जागरण के लिए मनुष्य को रात्रि में समय से सोना चाहिए, ताकि कम से कम छह से आठ घंटे की नींद लेकर ब्रह्म मुहूर्त में उठ सकें। समस्त स्त्री व पुरुष रात्रि के चौथे प्रहर में उठे और अपने आवश्यक दैनिक नैतिक कार्य करके सूर्योदय से पहले शुद्ध वायु में भ्रमण करे। जिससे उनका शरीर बलिष्ठ बन जाएगा और वे अपने गृहस्थ आश्रम में आनंद से रह सकेंगे। मनुष्य का प्रकृति के साथ विशेष संबंध है। इस समय प्रकृति में एक अलौकिक रमणीयता व्याप्त रहती है जिसका लाभ इसके साथ समन्वय बनाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इस अमृत बेला में समस्त प्राणियों के जीवन में नई ऊर्जा का संचार होने से सभी आनंदित रहते है। मनुष्य भी इस समय प्राणायाम, योगासन व ईश वंदना कर जीवन को श्रेष्ठता के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है।

अयोध्या विवाद: आस्था बनाम सबूत


अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल देश, समाज और समुदाय विशेष के हितों का ध्यान रखा, बल्कि संबंधित पक्षों द्वारा रखे गए तर्को और सबूतों को भी न्यायिक कसौटी पर समझा-परखा। देश के इस सबसे संवेदनशील अदालती निर्णय में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे संविधान या विधि सम्मत न माना जा सके। जो लोग इस पर उंगली उठा रहे हैं उन्हें न तो कानून के उद्देश्यों का ज्ञान है और न ही संविधान की मूल भावना का। हकीकत यह है कि अदालत के इस फैसले का स्वागत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समूचे देश और दोनों समुदायों की परिपक्व जनता ने किया। शायद यही कारण रहा कि फैसला आने के बाद तमाम बहसों और कयासों के बावजूद देश के किसी भी हिस्से में हिंसा अथवा तोड़फोड़ की कोई खबर देखने-सुनने को नहीं मिली। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी मीडिया के एक खास तबके द्वारा यह आरोप लगाना ठीक नहीं कि अयोध्या फैसला केवल आस्था को ध्यान में रखते हुए दिया गया। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सूझबूझ भरे निर्णय का अति सरलीकरण करना है।
उच्च न्यायालय के तीनों माननीय जजों ने न केवल कानून, विधि, इतिहास और पुराता8िवक साक्ष्यों को आधार बनाया, बल्कि सदियों से चली आ रही दोनों पक्षों के लोगों की मान्यता-आस्था और भावना को भी ध्यान में रखा। जो लोग निर्णय को आस्था पर आधारित बता रहे हैं, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि आखिर कानून का मूल उद्देश्य क्या है? क्या कानून सिर्फ कानून के लिए होता है? किसी कानून की व्याख्या में आखिर किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए? वास्तव में किसी भी कानून का उद्देश्य देश की एकता, अखंडता और शांति को बनाए रखने के अलावा देश के लोगों के बीच सौहार्द कायम करने और अराजकता को रोकने के लिए एक निरोधक हथियार के रूप में काम करने का होता है। यह सर्वहित की भावना के आधार पर काम करता है। इसलिए पचासों वर्षो से देश में अशांति और तनाव की वजह बने अयोध्या मुद्दे पर यदि जजों ने कानून की धाराओं के साथ-साथ परंपरागत कानून के तहत लोगों की आस्थाओं को भी ध्यान में रखा तो इसमें गलत क्या है? यहां गौर इस पर भी किया जाना चाहिए कि अदालत ने केवल आस्था का नहीं, बल्कि सबूतों के साथ आस्था का भी ध्यान रखा।
इस मामले में यह तर्क भी न्यायसंगत नहीं कि सबूतों की रोशनी में न्याय नहीं हुआ है। अयोध्या मामले पर निर्णय सुनाते समय पीठ के समक्ष भगवान राम की जन्मभूमि के विचाराधीन प्रश्न के संबंध में तीन जजों में से दो ने कहा कि हां, यह सही है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था, जहां अभी रामलला स्थापित हैं और जिसे हिंदु समुदाय सदियों से रामजन्मभूमि मानता आ रहा है। इस बिंदु पर तीसरे जज ने कहा कि विवादित स्थल को राम जन्मभूमि मानने के लिए समुचित सबूत नहीं हैं, हालांकि एक समय के बाद हिंदू यह मानने लगे थे कि राम का जन्म इसी स्थान पर हुआ और यह हिंदुओं की सदियों से चली आ रही मान्यता है। हालांकि तीनों ही जजों ने यह माना कि यह स्थान वही है जो बाबरी मस्जिद के बीचोबीच बने गुंबद के नीचे स्थित है। ऐसा उस पुराता8िवक साक्ष्य के आधार पर माना गया जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक और अन्य विशेषज्ञों की देखरेख में मंदिरों के मिले अवशेष के अध्ययन-विश्लेषण पर आधारित था। इतना अवश्य था कि मंदिरों के अवशेष को लेकर जजों में मतैक्य नहीं था। दो जजों ने अवशेषों के साक्ष्य के आधार पर कहा कि वहां मस्जिद का निर्माण मंदिरों को ढहाकर किया गया। यहां तक कि मस्जिद के निर्माण में भी मंदिरों के कुछ भग्नावशेषों का इस्तेमाल किया गया। इससे यह साबित होता है कि वहां पूर्व में मंदिर रहे थे। इसलिए यह कहना सही नहीं कि सबूतों की रोशनी में न्याय नहीं हुआ। कुछ लोग उच्च न्यायालय के निर्णय को फैसले की बजाय समझौता बता रहे हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि अदालत का निर्णय समझौतापरक है तो आखिर इसमें बुराई क्या है? न्यायपालिका का काम भी तो यही है कि सबको न्याय मिले। न्याय देते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इससे दोनों पक्ष करीब आएं और न कि उनमें दुश्मनी बढ़े।
न्याय को हार और जीत के चश्मे से देखने की हमारी प्रवृत्ति ठीक नहीं है। अयोध्या मामले में भी दोनों जजों ने ऐसा ही निर्णय दिया। इससे कुछ को संतुष्टि मिली तो कुछ निराश हुए, लेकिन किसी को हार या जीत का एहसास नहीं हुआ। जजों ने बीच का रास्ता निकाला। जहां कुछ मुद्दों पर दोनों पक्ष असंतुष्ट हैं, उसके लिए आगे का रास्ता खुला है। वे मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले भी जा रहे हैं। अयोध्या फैसला न्याय की भावना की पुष्टि करता है, जो देश और समाज के व्यापक हित को ध्यान में रखकर दिया गया है। जो मुद्दा दशकों से राजनीतिक स्तर पर नहीं सुलझ पाया वह यदि न्यायिक प्रक्रिया से सुलझ जाता है तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग इसे पंचायती न्याय कह रहे हैं वे इस प्रकार के शब्दों से कानून की मूल भावना का सम्मान गिरा रहे हैं। सवाल है आखिर पंचायती न्याय क्या होता है? पंचायती न्याय में कानून की बारीकियों में गए बिना सामुदायिक और समाज के व्यापक हितों व परंपरा को ध्यान में रखकर निर्णय दिया जाता है। इसलिए यदि यह पंचायती निर्णय है तो भी गलत कैसे कहा जा सकता है?
इस बारे में मीडिया के एक खास वर्ग द्वारा भी कुछ सवाल खडे़ किए जाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने वाले एक तरह के छद्म उदार बुद्धिजीवी हैं जो धर्मविरोधी या हिंदूविरोधी बातें कहकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इससे उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है और ऐसा खुद को धारा के विपरीत दिखाने और स्थापित करने की नीति का एक हिस्सा भर होता है। इस तरह की कोशिशों में राजनेताओं का भी एक वर्ग सक्रिय है ताकि वह अपने वोट बैंक सुरक्षित कर सके और लोगों को प्रभावित कर सके। इसलिए इन बातों को भूल हमें इंतजार करना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या आता है।
बेहतर तो यही होता कि दोनों पक्ष मिल-बैठकर कोई सहमति का रास्ता निकालते, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो सका तो हमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार करना चाहिए और उसी तरह अपनी एकता की पुष्टि करनी चाहिए जैसा उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद की गई। दोनों पक्षों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के निर्णय के बाद अब यह भी जरूरी है कि सरकार खुद को तटस्थ रखे, क्योंकि उसकी सक्रियता को राजनीतिक चश्मे से देखा जाएगा और दोनों समुदाय इसे संदेह की दृष्टि से देखेंगे।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

उनुका इयाद में जिनगी बिताईला

उनुका    इयाद   में    जिनगी   बिताईला  
होखेला उदास मन त खुद के समुझाईला  

जब-जब दिल के भीतर टीस उठेला
उनकर गावल गीत मन में गुनगुनाईला  

बढ़ेला बेचैनी जब देखिला ना उनके
चोरी से तस्वीर सीना से लगाईला    

जगलो में उनके नाम सुतलो में उनके नाम
उनकर नाम सपनो में बर-बराईला