ऋत्विक घटक ऐसे फिल्मकार हुए हैं जिनकी कला के हर स्तर पर बेचैनी दिखाई देती है। उनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि में पैदा होने वाला विस्थापन दिल के किसी कोने से बार-बार आवाज देती नजर आती है। सत्यजीत रे और मृणाल सेन से भी आगे की सोच रखने वाले घटक का काम निर्देशक के रूप में इतना प्रभावशाली रहा है कि बाद के कई भारतीय फिल्म निर्माताओं पर इसका प्रभाव साफ-साफ दिखाई देता है। उन्होंने हमेशा नाटकीय और साहित्यिक प्रधानता पर जोर दिया। वे पूरी तरह से भारतीय व्यावसायिक फिल्म की दुनिया के बाहर के व्यक्ति थे। व्यावसायिक सिनेमा की कोई भी विशेषता उनके काम में नजर नहीं आती है।
घटक का जन्म 4 नवंबर, 1925 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका में हुआ। बाद में उनका परिवार कोलकाता आ गया। यही वह काल था जब कोलकाता शरणार्थियों का शरणस्थली बना हुआ था। चाहे 1943 में बंगाल का अकाल, 1947 में बंगाल के विभाजन हो या फिर 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध, इस दौर का विस्थापन घटक के जीवन को काफी प्रभावित किया। यही कारण है कि सांस्कृतिक विच्छेदन और निर्वासन उनकी फिल्मों में बखूबी दिखता है। 1948 में घटक ने अपना पहला नाटक कालो सायार (द डार्क लेक) लिखा और ऐतिहासिक नाटक ‘नाबन्ना के पुनरुद्धार” में हिस्सा लिया। 1951 में वे इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन के साथ जुड़े गए। नाटकों का लेखन, निर्देशन और अभिनय के अलवा उन्होंने बेर्टेल्ट ब्रोश्ट और गोगोल को बंगला में अनुवाद भी किया। 1957 में, उन्होंने अपना अंतिम नाटक ज्वाला (द बर्निंग) लिखा और निर्देशित किया।
निमाई घोष के चिन्नामूल (1950) में बतौर अभिनेता और सहायक निर्देशक के रूप में घटक ने फिल्मी दुनिया में प्रवेश किया। उनकी पहली पूर्ण फिल्म नागरिक (1952) आई, दोनों ही फिल्में भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर थीं। अजांत्रिक (1958) घटक की पहली व्यावसायिक फिल्म थी। फिल्म मधुमती (1958) के पटकथा लेखक के रूप में घटक की सबसे बड़ी व्यावसायिक सफलता थी, जिसकी कहानी के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार में नामांकित हुए। ऋत्विक घटक ने करीब आठ फिल्मों का निर्देशन किया। उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्में, मेघे ढाका तारा (1960), कोमल गंधार (1961) और सुवर्णरिखा (1962) थीं। 1966 में घटक पुणे चले गए जहां वे भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में अध्यापन करने लगे।
1970 के दशक में घटक फिल्म निर्माण में फिर वापस लौटे। लेकिन तब तक वे खुद को अत्यधिक शराब के सेवन में डुबो चुके थे। उनका स्वास्थ्य खराब हो चुका था। उनकी आखिरी फिल्म आत्मकथात्मक थी जिसका नाम था ‘जुक्ति तोक्को आर गोप्पो” (1974) थी। छह फरवरी 1976 को उनका निधन हो गया।
the picture is of satyajit ray
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