रविवार, 22 अप्रैल 2012

‘‘Fuck Me Look’’


इंटरनेट की गतिशीलता और बदले नेट संचार के आंकड़े बड़े ही दिलचस्प हैं। विश्व स्तर पर इंटरनेट के यूजरों की संख्या 1.6 बिलियन है। इसमें एशिया का हिस्सा आधे के करीब है। एशिया में 738 मिलियन इंटरनेट यूजर हैं। इसमें सबसे ज्यादा यूजर चीन के हैं। फेसबुक के 500 मिलियन सक्रिय यूजर हैं। ये लोग संदेश ले रहे हैं और दे रहे हैं। इनके संदेशों की संख्या अरबों-खरबों में है। इसी तरह ट्विटर के यूजरों की संख्या भी करोड़ों में है। ट्विटरों के संदेशों की अब तक की संख्या 10 बिलियन है। यू ट्यूब में दो बिलियन वीडियो रोज देखे जाते हैं।

         इंटरनेट की उपरोक्त गति को ध्यान में रखकर देखें तो पाएंगे कि पोर्नोग्राफी देखने वालों की गति क्या होगी ? पोर्नोग्राफी बेवसाइट पर एक पदबंध है जिसका व्यापक इमाल किया जा रहा है और वह है  ‘‘Fuck Me Look’’ । इस पदबंध को पढ़कर लग सकता है कि इसका पोर्न के संदर्भ में ही प्रथम इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। औरत का तो विज्ञापन में कार से लेकर ब्लेड तक इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसी वस्तुओं के विज्ञापन में औरत रहती है जिसे औरतें इस्तेमाल नहीं करतीं।

       संस्कृति और मासकल्चर की समस्या यह है कि ये दोनों मानकर चलते हैं कि पुरूष हमारी संस्कृति है,पुंसवाद हमारी संस्कृति है। पुरूष ही हमारी संस्कृति का समाजीकरण करता है। इसी पुरूष के ऊपर  ‘Fuck Me’ के नारे के जरिए बमबारी हो रही है। इस नारे के तहत विजुअल इमेजों में  कहा जा रहा है कि तुम मेरे शरीर के मालिक हो, स्त्री शरीर के हकदार हो। 
      पुरूष से कहा जा रहा है कि तुम बलात्कार या स्त्री उत्पीड़न के आरोपों को गंभीरता से न लो क्योंकि मैं तुम्हें अपना शरीर भेंट कर रही हूँ। फ़र्क इतना है कि पोर्न बेवसाइट में ‘Fuck Me’ कहने वाली औरत बाजार या गली में टहलती हुई कहीं पर नहीं मिलती।
     इसी तरह हार्डकोर पोर्नोग्राफी बेवसाइट में गुप्तांगों का वस्तुकरण होता है, वहां पर स्त्री का सेक्सी लुक सभ्यता को नरक के गर्त में ले जाता है। यह संभावना है कि पोर्न के देखने से बलात्कार में बढ़ोतरी हो यह भी संभव है पोर्न का यूजर सीधे बलात्कार न भी करता हो। लेकिन यह सच है कि पोर्न गंदा होता है और यह दर्शक के सास्कृतिक पतन की निशानी है। 
      जब तक कोई युवक पोर्न नहीं देखता उसकी जवानी उसके हाथ में होती है। वह अपनी जवानी का मालिक होता है। अपनी कामुकता का मालिक होता है।  लेकिन ज्योंही वह पोर्नोग्राफी देखना आरंभ करता है उसका अपनी जवानी और कामुकता पर से नियंत्रण खत्म हो जाता है। अब ऐसे युवक की जवानी पोर्नोग्राफी के हवाले होती है। उसकी जवानी की ताकत का स्वामित्व पोर्नोग्राफी के हाथों में आ जाता है और इस तरह एक युवा अपनी जवानी को पोर्नोग्राफी के हवाले कर देता है। वह पोर्न देखता है, खरीदता है।
     पोर्न बदले में उसके सेक्स के बारे में संस्कार,आदत, एटीट्यूट और आस्था बनाती है। युवा लोग नहीं जानते कि वे अपनी जवानी की शक्ति पोर्न के हवाले करके अपनी कितनी बड़ी क्षति कर रहे हैं। जवानी उनकी कामुक भावनाओं का निर्माण करती है। उनकी कामुक पहचान बनाती है।
     जो लोग कहते हैं कि पोर्न के जरिए शिक्षा मिलती है,सूचनाएं मिलती हैं। वे झूठ बोलते हैं। पोर्न के देखने के पहले युवक का दुनिया के बारे में जिस तरह का नजरिया होता है वह पोर्न देखने के बाद पूरी तरह बदल जाता है। पोर्न देखने वाला सिर्फ स्वतः वीर्यपात करता रहता है और उससे ज्यादा सेक्स पाने की उम्मीद लगाए रहता है।
    पोर्न की इमेजों में दुनिया,औरत,मर्द,कामुकता ,आत्मीयता ,शारीरिक लगाव आदि के बारे में कहानी बतायी जाती हैं। लेकिन पोर्न की सारी इमेजों से एक ही संदेश अभिव्यंजित होता है वह है घृणा। यह कहना गलत है पोर्न से प्रेम पैदा होता है। गेल डेनिश ने इसी संदर्भ में लिखा था कि पोर्न से प्रेम नहीं घृणा अभिव्यंजित होती है। पोर्न देखकर औरत के प्रति प्रेम नहीं घृणा पैदा होती है। पुरूष औरत के शरीर से घृणा करने लगता है। उसे  तो वह शरीर चाहिए जो पोर्न स्टार का है।वैसा सेक्स चाहिए जैसा पोर्न में दिखाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ’Fuck Me’ का नारा  'Hate Me' की विचारधारा की सृष्टि करता है।
        आंद्रिया द्रोकिन ने इस बात पर लिखा है कि ''जब कोई औरत या लड़की के सामान्य जीवन को देखता है तो वह वस्तुत: उनकी क्रूर स्थितियों को देख रहा होता है। हमें मानना पड़ेगा कि सामान्य जीवन में चोट लगना आम बात हैयह व्यवस्था का हिस्सा है,सत्य है। हमारी संस्कृति ने भी इसे स्वीकार किया है। इसका प्रतिरोध करने पर हमें दंड मिलता है। गौरतलब है कि यह तकलीफ देनानीचे ढकेलनालिंगीय क्रूरता आदि दुर्घटनाएँ या गलतियाँ नहीं वरन् इच्छित कार्य व्यापार हैं। हमें अर्थहीन व निर्बल बनाने में पोर्नोग्राफी की बड़ी भूमिका है। यह हमारे दमनशोषण तथा अपमान को सहज और अनिवार्य बनाती है।’
द्रोकिन ने यह भी लिखा है कि ‘‘पोर्नोग्राफर हमारे शरीर का उपयोग भाषा के रूप में करते हैं। वे कुछ भी कहने या सम्प्रेषित करने के लिए हमारा इस्तेमाल करते हैं। उन्हें इसका अधिकार नहीं है। उन्हें इसका अधिकार नही होना चाहिए। दूसरी बातसंवैधानिक रूप से भाषायी पोर्नोग्राफी की रक्षा करना कानून का निजी हित में उपयोग करना है। इससे उन दलालों को खुली छूट मिल जाएगी जिन्हें कुछ भी कहने के लिए हमारी जरूरत होती है। वे दलाल मनुष्य हैउन्हें मानवाधिकार प्राप्त हैवैधानिक रक्षण का सम्मान प्राप्त है। हम चल संपत्ति हैउनके लिए रद्दी से ज्यादा नहीं।’’


आंद्रिया द्रोकिन ने लिखा कि पोर्न के लिए औरत महज भाषिक प्रतीक मात्र है। पोर्न की भाषा दलाल की भाषा है। उन्हीं के शब्दों में ‘‘हम मात्र उनके भाषिक प्रतीक हैं जिन्हें सजाकर वे सम्प्रेषित करते हैं। हमारी पहचान दलालों की भाषा में निर्मित होती है। हमारा संविधान भी हमेशा से उन्हीं के पक्ष में खड़ा हैवही जो लाभ कमानेवाले सम्पत्ति के मालिक हैं। चाहे सम्पत्ति कोई व्यक्ति ही क्यों न हो। इसका कारण कानून और धनकानून और पॉवर का गुप्त समझौता है। दोनों चुपचाप एक दूसरे के पक्ष में खड़े हैं। कानून तब तक हमारा नही जब तक वह हमारे लिए काम नही करता। जब तक हमारा शोषण नहीं रोकताहमें मानव होने का सम्मान नही देता।’’
   जैसा कि सभी जानते हैं कि अमेरिका पोर्न का मूल स्रोत है। सारी दुनिया में अमेरिका ने पोर्न संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके एक नए किस्म की सांस्कृतिक प्रतिक्रांति की है। द्रोकिन ने लिखा है , ‘‘ अमेरिका में पोर्नोग्राफी उन लोगों का इस्तेमाल करती है जो संविधान के बाहर छिटके हुए हैं। पोर्नोग्राफी श्वेत औरतों का चल सम्पत्ति के रूप में इस्तेमाल करती है। यह अफ्रीकन-अमेरिकन महिलाओं का दास की तरह उपयोग करती है। पोर्नोग्राफी बहिष्कृतत पुरुषों (अफ्रीकन-अमेरिकन दासों) का उपयोग कामुक वस्तुओं की तरह जानवरों द्वारा बलात्कार के लिए करती है। पोर्नोग्राफी वृद्ध श्वेत पुरुषों पर नही बनती। ऐसा नही हैं। कोई उन तक नही पहुँच पाता है। वे हमारे साथ ऐसा कर रहे हैंया उन लोगों की रक्षा कर रहे है जो हमारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं। उन्हें इसका फायदा मिलता है। हमें उन्हें रोकना होगा।’’
      समाज में पोर्न तब तक रहेगा जब तक औरत को संपत्ति माना जाएगा और समाज में संपत्ति का महिमागान चलता रहेगा। संपत्ति पर आधारित संबंधों को नियमित करने में धर्म और मीडिया दो बड़े प्रचारक और राय बनाने वाले हैं। इसी संदर्भ में आंद्रिया द्रोकिन ने लिखा- 
‘‘ज़रा सोचें किस तरह विवाह स्त्री को नियमित करता हैकिस प्रकार औरतें कानून के अंतर्गत संपत्ति मात्र हैं। बीसवीं शती के आरम्भिक वर्षों के पहले यह स्थिति ऐसे ही बरकरार थी। चर्च महिलाओं को संचालित करता था। जो मर्द स्त्री को अपनी वस्तु समझते थे उनके खिलाफ प्रतिरोध चल रहा था। और अब ज़रा पोर्नोग्राफी द्वारा समाज के स्त्री नियमन की नई व्यवस्था पर गौर करेंयह औरतों के खिलाफ आतंकवाद का लोकतांत्रिक प्रयोग है। रास्ते पर चल रही हर स्त्री को इसके द्वारा यही संदेश दिया जाता है कि उसकी अवस्था नज़रे नीची किए हुए जानवर के समान है। वह जब भी अपनी ओर देखेगी उसे पैर फैलाए लटकी हुई स्त्री दिखेगी। आप भी यही देखेंगे।’’

मंगलवार, 1 मार्च 2011

रानी चटर्जी मुझे आकर्षित करती हैं . यह कहना मेरे लिए जितना आसान है इसे सिद्ध कर पाना उतना आसान नहीं है. वे मुझे क्यों अच्छी लगती हैं ? इसका उत्तर और भी कठिन है. उनका व्यक्तित्व बहु आयामी है.उसके सारे आयाम मेरी समझ में आते हैं और उनके सारे आयाम मुझे रुचते हैं ऐसा मैं नहीं कह सकता . उनकी सारी स्थापनाओं, सारे विचारों से सहमत हूँ ऐसा भी नहीं है. फिर भी वे मुझे अच्छी लगती हैं

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

ऋत्विक घटक

ऋत्विक घटक ऐसे फिल्मकार हुए हैं जिनकी कला के हर स्तर पर बेचैनी दिखाई देती है। उनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि में पैदा होने वाला विस्थापन दिल के किसी कोने से बार-बार आवाज देती नजर आती है। सत्यजीत रे और मृणाल सेन से भी आगे की सोच रखने वाले घटक का काम निर्देशक के रूप में इतना प्रभावशाली रहा है कि बाद के कई भारतीय फिल्म निर्माताओं पर इसका प्रभाव साफ-साफ दिखाई देता है। उन्होंने हमेशा नाटकीय और साहित्यिक प्रधानता पर जोर दिया। वे पूरी तरह से भारतीय व्यावसायिक फिल्म की दुनिया के बाहर के व्यक्ति थे। व्यावसायिक सिनेमा की कोई भी विशेषता उनके काम में नजर नहीं आती है।
घटक का जन्म 4 नवंबर, 1925 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका में हुआ। बाद में उनका परिवार कोलकाता आ गया। यही वह काल था जब कोलकाता शरणार्थियों का शरणस्थली बना हुआ था। चाहे 1943 में बंगाल का अकाल, 1947 में बंगाल के विभाजन हो या फिर 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध, इस दौर का विस्थापन घटक के जीवन को काफी प्रभावित किया। यही कारण है कि सांस्कृतिक विच्छेदन और निर्वासन उनकी फिल्मों में बखूबी दिखता है। 1948 में घटक ने अपना पहला नाटक कालो सायार (द डार्क लेक) लिखा और ऐतिहासिक नाटक ‘नाबन्ना के पुनरुद्धार” में हिस्सा लिया। 1951 में वे इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन के साथ जुड़े गए। नाटकों का लेखन, निर्देशन और अभिनय के अलवा उन्होंने बेर्टेल्ट ब्रोश्ट और गोगोल को बंगला में अनुवाद भी किया। 1957 में, उन्होंने अपना अंतिम नाटक ज्वाला (द बर्निंग) लिखा और निर्देशित किया।
निमाई घोष के चिन्नामूल (1950) में बतौर अभिनेता और सहायक निर्देशक के रूप में घटक ने फिल्मी दुनिया में प्रवेश किया। उनकी पहली पूर्ण फिल्म नागरिक (1952) आई, दोनों ही फिल्में भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर थीं। अजांत्रिक (1958) घटक की पहली व्यावसायिक फिल्म थी। फिल्म मधुमती (1958) के पटकथा लेखक के रूप में घटक की सबसे बड़ी व्यावसायिक सफलता थी, जिसकी कहानी के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार में नामांकित हुए। ऋत्विक घटक ने करीब आठ फिल्मों का निर्देशन किया। उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्में, मेघे ढाका तारा (1960), कोमल गंधार (1961) और सुवर्णरिखा (1962) थीं। 1966 में घटक पुणे चले गए जहां वे भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में अध्यापन करने लगे।
1970 के दशक में घटक फिल्म निर्माण में फिर वापस लौटे। लेकिन तब तक वे खुद को अत्यधिक शराब के सेवन में डुबो चुके थे। उनका स्वास्थ्य खराब हो चुका था। उनकी आखिरी फिल्म आत्मकथात्मक थी जिसका नाम था ‘जुक्ति तोक्को आर गोप्पो” (1974) थी। छह फरवरी 1976 को उनका निधन हो गया।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

मेरा करवाचौथ का व्रत

भारतीय संस्कृति में व्रतोपवास का अत्यन्त महत्तवपूर्ण स्थान है। अनेक स्त्री-पुरुष और बच्चे व्रतोपवास करते हैं। लेकिन व्रत रखने में महिलाओं ने जैसा अधिकार बना रखा है वह ईर्ष्या उत्पन्न करता है। लगभग हर व्रत का कोई न कोई उद्देश्य होता है। अधिकतर व्रतों के अधिकार महिलाओं के पास होने के कारण उन्हीं के उद्देश्य पूर्ण होते हैं और पुरुष घाटे में रह जाते हैं। व्रतों से दूरी बनाए रखने के कारण पुरुष को पता तक नहीं चल पाता कि किस व्रत में उसके खिलाफ़ क्या षडयंत्र रचा जा रहा है।

अब करवाचौथ के व्रत को ही लें- अभी तक तो मैं यही समझता था कि स्त्रियाँ यह व्रत अत्यंत निश्छल एवं निष्कपट भाव से करती हैं पर मेरा यह भ्रम उस दिन टूट गया जिस दिन मैंने एक स्थान पर पढा - एक बार पति-पत्नी मंदिर में पूजा हेतु गए। पत्नी भगवान् के आगे हाथ जोड़ कर नतमस्तक होते हुए प्रार्थना करने लगी - "हे भगवान्! हे दया के सागर प्रभो! हे परम कृपालु! तुम मेरी उम्र भी इन्हीं को दे दो।"

यह सुनकर पति तैश में आकर नाराज होते हुए बोले - "न, न, इसकी प्रार्थना कभी न मानना भगवन। यह बहुत चालाक और चतुर है तभी तो यह प्रार्थना कर रही है कि मेरी उम्र भी इन्हें लगा दो। यानि जब इसकी उम्र मुझे लग जाएगी तो मैं शीघ्र ही बुड्ढा हो जाऊँगा और यह नवयुवती ही बनी रहेगी। इसके मन में जरुर को कपट है। इसलिए इसकी प्रार्थना स्वीकार न करना वरना सब गुड़ गोबर हो जाएगा।"

यह पढ़कर मैं चिन्ता में पड़ गया कि हो न हो, कहीं इस करवाचौथ के व्रत का ही फल तो नहीं है कि मेरे सिर के बाल सफेद हो गए, दाँत गिरने लगे और मुँह पर झुर्रियाँ अपना प्रभाव दिखाने लगी हैं। मैंने सोचा कि कहीं ईश्वर ने श्रीमती जी की 
प्रार्थना सुन तो नहीं ली जिससे उनकी उम्र मुझे लग गई हो और मैं सचमुच ही समय से पहले बुड्ढा होने लगा।

इससे पहले तो मैं यही समझता था कि समय का तकाजा है, एक न एक दिन बुड्ढे होना ही है, तभी तो शरीर उत्तरोत्तर क्षीणता की ओर बढ़ता ही जा रहा है। परन्तु यह पति-पत्नी की प्रार्थना पढ़ कर मेरा माथा ठनका कि कहीं यह करवाचौथ के व्रत का ही परिणाम न हो। अत: इस पर मैंने गम्भीरतापूर्वक विचार करना प्रारम्भ कर दिया कि क्या इससे बचने का को उपाय है? आखिर महात्मा बुद्ध ने भी तो दु:खों से बचने का उपाय खोज ही लिया था।

"आवश्यकता आविष्कार की जननी है" इस उक्ति को लक्ष्य में रखकर मैं प्रयत्न करने लगा। आखिकार मेहनत रंग लाई। इस समस्या का समाधान निकल ही आया और वह यह था कि मैंने निश्चय कर लिया कि अब की बार करवाचौथ का व्रत मैं भी रखूंगा। इस प्रकार मैं अपनी उम्र श्रीमती जी को दे दूँगा और दोनों की आयु में सन्तुलन ठीक हो जायगा।

मैंने घर में श्रीमती जी के सामने यह प्रस्ताव रखा। यह सुन कर श्रीमती जी एकदम चौंक पड़ीं और बड़ी हैरानी से कहने लगीं, "यह तो स्त्रियों का व्रत है पुरुषों का नहीं। फिर तुम कैसे रखोगे? इसे तो स्त्रियाँ ही रखती हैं।"

मैंने कहा, "अब स्त्रियों का एकाधिकार नहीं चलेगा। क्योंकि स्त्रियों ने करवाचौथ का व्रत रखकर स्त्री-पुरुष की आयु के सन्तुलन को ही
 गड़बड़ा दिया है। इस व्रत से स्त्रियों की आयु तो कम हो जायगी और पुरुषों की आयु अधिक लम्बी हो जायगी। फिर तो गृहस्थी की गाड़ी के दोनों पहिये बराबर नहीं चल सकेंगे। एक पहिया बहुत पहले टूट जाएगा और दूसरा बहुत बाद में। यदि ऐसा हो गया तो गाड़ी का चलना ही बन्द हो जाएगा और चलने की बजाय गाड़ी खड़ी हो जाएगी।"

अत: करवाचौथ की पूर्व संघ्या से मैंने व्रत की तैयारी प्रारम्भ कर दी। हालाँकि स्त्रियाँ दिन में व्रत रखती हैं लेकिन सुविधा की दृष्टि से मैंने रात्रि में व्रत रखने का निश्चय किया। इससे दो लाभ थे एक तो सोते रहने के कारण व्रत का समय अच्छी तरह बीत जाएगा और दूसरे भूखे रहने में कष्ट नहीं होगा। वैसे भी दिन-रात्रि में विभक्त २४ घण्टे
 के समय को ही वास्तव में "दिन" कहा जाता हैं। तो फिर इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि व्रत दिन में रखा गया या रात में। बल्कि रात में व्रत रखना अधिक बुद्धिमानी का काम है।

व्रत का प्रारम्भ क्योंकि चन्द्रोदय से होना था, अत: इससे पहले ही अच्छी तरह खा पी कर व्रत हेतु तैयार हो गया। चन्द्र देवता भी उस दिन कुछ उदार लगे और जल्दी ही उग आए। अब मेरा व्रत शुरु हो चुका था। चन्द्रदर्शन के पश्चात् कुछ समय दूरदर्शन के सम्मुख व्यतीत हो गया और कुछ इधर-उधर की गपशप में निकल गया। इसी बीच दस बज चुके थे। अब मैं आराम से सो गया। स्त्रियाँ भी तो दिन में सो जाती हैं। अत: मैंने भी सो जाने में कोई दोष न समझा। प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व ही उठ गया। स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त हुआ। इतने में सूर्यदेव भी उदित हो चुके थे। अत: सूर्य को जल देकर उन्हें प्रणाम किया और प्रार्थना की - "हे देवाधिदेव सूर्य भगवान्! हे कृपानिधन! मेरी उम्र मेरी पत्नी को दे देना।"
 इस प्रार्थना के बाद मैंने अपना व्रत खोल दिया।

इधर प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व श्रीमती जी ने सरगी खाकर अपना व्रत प्रारम्भ कर दिया था। सायंकाल चन्द्रोदय होने पर चन्द्रदेव को अर्घ्य देकर उन्होंने प्रार्थना की - "हे चन्द्र देवता! मेरी आयु मेरे पति को लग जाए।" परन्तु अब मुझे मन में असीम शांति थी, इस बात का सन्तोष था कि आयु परस्पर अदला-बदली हो जाने से अब दोनों की आयु में सन्तुलन बना रहेगा।
क्या ही अच्छा हो कि सभी पतिदेव इसी तरह व्रत रखने लग जाएँ जिससे आयु की विषमता दूर हो सके और दोनों में सामंजस्य की भावना फिर से स्थापित हो जाय। उन नवयुवकों को भी करवाचौथ का व्रत प्रारम्भ कर देना चाहिए जिनका विवाह होने वाला है क्योंकि अनेक कन्याएँ भी तो यह व्रत रखती हैं। कहते हैं कि भाग्यविधाता किस्मत में पहले ही लिख देता है कि किसका विवाह किसके साथ होना है। अत: सतर्कता हेतु नवयुवकों को भी इस व्रत में सम्मिलित हो जाना चाहिए।

आशा है सभी पुरुष एवं नवयुवक मेरे द्वारा ऊपर बताई गई विधि द्वारा व्रत रखकर पुरुष-एकता का परिचय देंगे। लेकिन यह सोच कर कि महिलाएँ भी तो इस व्रत पर चूड़ियाँ पहनती हैं,  चूड़ियाँ पहन कर घर में न बैठ जाएँ। इस व्रत का उद्देश्य स्वयं को जल्दी बूढ़ा हो जाने से बचाना है न कि महिला बन जाना।

पुरुष एकता जिन्दाबाद - प्रसन्नता की बात है कि मेरे व्रत का प्रचार-प्रसार होने लगा है। पुरुष व्रत आन्दोलन के प्रयास आगे बढ़ने लगे हैं।

तुलसी के राम की मर्यादा और उनका राज्यादर्श

गोस्वामी तुलसीदास का 'रामचरितमानस' मर्यादा का महाकाव्य है और उसके महानायक हैं श्रीराम। वे मर्यादापुरुषोत्तम हैं और महाकाव्य के समस्त घटनाक्रम में अपने चरित्र एवं आचरण से जिन मर्यादाओं की वे स्थापना करते हैं, वे एक आदर्श मनुष्य और प्रजारंजक शासक की तुलसी की परिकल्पना का ही महाख्यान है। तुलसी के राम परब्रह्म हैं, ईश्वर हैं, सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु के अवतार हैं,पर वे मानव देह एवं क्षमताओं की सीमाओं की मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं करते। 'भए प्रगट कृपाला' का उनका रूप मां के 'कीजै सिसुलीला' के अनुरोध की अवज्ञा नहीं करता। वे दशरथ के आंगन में एक सामान्य शिशु के रूप में विचरते हैं, शिशुक्रीडा करते हैं, गुरु आश्रम में विद्याध्यन हेतु जाते हैं, आश्रम के नियमों से बंधते हैं, एक राजपुत्र की भांति आखेट पर भी जाते हैं। वे 'अनुज सखा संग भोजन करहीं / मातु पिता अग्या अनुसरहीं' की बाल्यावस्था की पूरी स्थितियों को सहज भाव से जीते हैं। यह जो अनुज-सखा का संग-भाव है, यही तो उन्हें बाद में एक सहज आमजन का नायक बनाता है । किशोरावस्था से ही वे अपने प्रजारंजक रूप का परिचय देने लगते हैं-- 'जेहि बिधि सुखी होंहिं पुरलोगा / करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा' की उनकी यही भावभूमि तो उनके रामराज्य की मर्यादा की स्थापना का प्रस्थान- बिंदु है।और इसमें भी वे अपने गुरुजनों यानी अपने पिता एवं राजगुरु की 'आयसु मांगि करहिं पुरकाजा' की ही मर्यादा की स्थापना करते चलते हैं। 

लंकाकांड में 'रावनु रथी बिरथ रघुबीरा' देखकर जब विभीषण अधीर होते हैं, तब राम ने 'जेहि जय होइ सो स्यंदनु' 
का वर्णन इस प्रकार किया है- 

'सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। 
ईसभजनु सारथी सुजाना । बिरति धर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा । बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।।
अगम अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।।'

वास्तव में राम ने धर्मरथ की इस व्याख्या के माध्यम से उन जीवन-मूल्यों एवं मर्यादाओं को ही परिभाषित किया है, जिनकी स्थापना के लिए वे जीवन पर्यन्त कृतसंकल्प रहे। इन्हीं मर्यादाओं से उन्होंने अपने अवतरण के प्रयोजन को सिद्ध किया। 

उनके व्यक्तित्व में ये सभी सात्विक मानुषी वृत्तियाँ अर्थात शौर्य-धीरज-सत्य-शील-बल-विवेक-दम-परहित-क्षमा-कृपा-समता-ईशभजन-विरक्ति-संतोष-दान-बुद्धि-विज्ञान-अगम अचल मन-शम यम नियम-विप्र-गुरु के प्रति पूजा भाव अपनी परम स्थिति में उपस्थित हैं। किशोरावस्था से ही वे पूरी तरह 'विद्या विनय निपुन गुनसीला' हैं। इसी कारण वे सर्वप्रिय हैं। गोस्वामी जी ने उनकी सर्वजनप्रियता का उल्लेख इस प्रकार किया है -
'कोसलपुरवासी नर नारि वृद्ध अरु बाल ।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुं राम सुजान।।' 
उनकी एक राजा के प्रजारंजक धर्म-रक्षक रूप की पहली व्यवहारिक झलक हमें विश्वामित्र मख-प्रसंग में मिलती है। इस प्रसंग के माध्यम से आततायी के दमन एवं आस्तिक-सात्त्विक भावों के पोषण के उनके अवतारी विरुद की पहली बानगी मिलती है। अहल्या-प्रसंग से उनकी नारी के प्रति उदार एवं आस्तिक दृष्टि का पता चलता है। एक समाज-बहिष्कृत एवं पतिता के रूप में तिरस्कृत स्त्री की मर्यादा का रक्षण, उसकी खोई गरिमा की पुनर्स्थापना का यह अभियान राम के मर्यादापुरुषोत्तम स्वरूप को ही परिभाषित करता है। 

राम अनुजों के प्रिय हितैषी अग्रज हैं, मित्रों के सखा हैं, गुरुजनों के अति विनम्र आज्ञापालक शिष्य हैं। जनकपुरी में लक्ष्मण के बिना कहे ही वे उनकी 'जाइ जनकपुर आइअ देखी' की 'लालसा बिसेखी' को जान जाते हैं और गुरु से आज्ञा लेने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं। और फिर गुरु की अनुज्ञा लेते समय उनकी मर्यादा देखने योग्य है। 'परम विनीत सकुचि मुस्काई । बोले गुरु अनुसासन पाई'-- हाँ, यही तो है राम की एक विनम्र शिष्य की मर्यादा, जिसका पालन वनवास-काल में ऋषियों से सम्पर्क करते समय भी उनके व्यवहार में हमें बखूबी देखने को मिलता है। विश्वामित्र के प्रति उनके विनयशील व्यवहार की बानगी जनकपुर में बार -बार हमें देखने को मिलती है। देखें उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां--

'कौतुक देखि चले गुर पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ।।
सभय सप्रेम विनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ ।
गुरुपद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ।।'

रोज़ की दिनचर्या में भी इसी गुरु-शिष्य की मर्यादा का समुचित पालन देखने को मिलता है। रात्रि-शयन के समय- 'बार-बार मुनि अज्ञा दीन्हीं । रघुबर जाइ सयन तब कीन्हीं ' और प्रातः ' गुर ते पहलेहि जगतपति जागे राम सुजान'। 


पुष्पवाटिका प्रसंग में षोडषवर्षीय राम के मन में सीता के प्रति जिस प्रीतिभाव का उदय होता है, वह भी अत्यंत सात्त्विक एवं मर्यादित है। मन में उपजे इस आकर्षण को वे सहज भाव से स्वीकारते हैं और उदात्त रघुवंश की मर्यादा से उसे जोड़कर उसकी सामाजिक भूमिका को परिभाषित करते हैं। तुलसी ने प्रीति की इस मर्यादा को बड़ी ही शालीनता से प्रस्तुत किया है--

' सिय सोभा हिय बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ।।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मन कुपंथ पगु धरै न काऊ ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहि सपनेहु परनारि न हेरी ।।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु दीठी ।। 

इस विषय में वे गुरु विश्वामित्र से भी कोई दुराव नहीं करते – 
'राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुआ छल नाहीं ।।' 

पुष्प वाटिका प्रसंग में ही उनकी एक और मर्यादा देखने को मिलती है। वे वाटिका में उपस्थित मालियों से पूछकर ही पुष्प-चयन करते हैं- 'चहुँ दिसि चितइ पूछि मालीगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ।।'। आज के शासकों, उनकी संतानों के आचरण के संदर्भ में राम के इस व्यवहार को रखकर देखें। राम के राज्यादर्श की भावभूमि ऐसी ही मर्यादाओं से तो निर्मित हुई है। 

परशुराम-प्रसंग राम के चरित्र, उनके आचार-विचार,उनकी व्यवहार-कुशलता एवं उनकी मर्यादा की सबसे कड़ी कसौटी है। यहाँ उनके विरोध में खड़े हैं उनके पूर्व के अवतारपुरुष भृगुवंशी परशुराम, जिनकी सात्त्विक अहम्मन्यता उनकी शक्ति भी है और उनके अवतारी स्वरूप की परिसीमा भी। राम यहाँ भी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं होते। वे 'हृदय न हरसु विषाद कछु' के अपने समत्वभाव को बिना त्यागे विनम्र और शिष्ट-शालीन बने रहते हैं। वे उन्हें 'समसील धीर मुनि ज्ञानी ' कहते हुए 'कर कुठारु आगे येह सीसा' और 
'राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तुम्हारा ।। 
देव एक गुन धनुष हमारे । नवगुन परम पुनीत तुम्हारे ।।
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ।।'
आदि कहकर एक ओर अपने मर्यादित व्यवहार की बानगी देते हैं, तो दूसरी ओर परशुराम के आत्मविश्वास एवं अहंकार को भी क्षीण करते हैं। 

किन्तु जब परशुराम' तहू बंधु सम बाम' कहकर उनका तिरस्कार करते हैं, तब भी बिना अपना संतुलन खोये वे जो कुछ कहते हैं, वह उनके आत्मविश्वास और मर्यादा, दोनों की विशिष्टता को दर्शाता है -
'जौ हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भयबस नावहिं माथ ।।
जौ रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन काल किन होऊ ।।
कहौं सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुवंसी ।।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ।।'
यह भाषा विनम्र है, आत्मसम्मानयुत है और नीतिपूर्ण चुनौती देती भी है। तुलसी के कवित्व, उनके नाटकीय वार्तालाप वाले कुछ विशिष्ट प्रसंगों में से तो यह है ही। 

तुलसी के राम कैसे हैं? वे नीतिज्ञ हैं, गुणज्ञ हैं, प्रीति-नीति, दोनों को भली प्रकार निभाना जानते हैं, सेवक-सखा-बंधु-प्रियजनों सभी के प्रति अपने व्यवहार में संतुलित एवं उदार हैं। उनका मन पूरी तरह उनके वश में है। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के प्रथम सर्ग में उनके गुणों का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
'धर्मज्ञ सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रतः । 
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान ।। १२ ।।

रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षित ।
वेदवेदांग तत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ।। १३ ।।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो स्मृतिमान प्रतिभानवान ।
सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षण: ।। १४ ।।

सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः । 
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शन: ।। १५ ।।
अर्थात 
वे धर्मज्ञ ,सत्यव्रती, प्रजा के हित में सदैव रत रहनेवाले, यशस्वी, ज्ञानसम्पन्न, पवित्र भावों से युक्त, इन्द्रियों को वश में और मन को एकाग्र रखनेवाले हैं। वे समस्त जीवलोक के रक्षक एवं धर्म के संरक्षक हैं, वेद-वेदांगों के तत्त्व को जाननेवाले एवं धनुर्विद्या में निष्णात हैं। वे अखिल शास्त्रों के ज्ञाता, तीव्र स्मरणशक्ति से सम्पन्न तथा अतीव प्रतिभावान हैं। सद्विचार और उदार हृदयवाले श्रीराम वार्तालाप में चतुर एवं समस्त लोकों में प्रिय हैं। जैसे नदियां समुद्र में आकर मिलती हैं, वैसे ही साधु पुरुष उनसे मिलते रहते हैं। वे प्रियदर्शन हैं और आर्य हों या अन्य, सभी के प्रति वे समान भाव रखते हैं। 

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में देवर्षि नारद द्वारा वर्णित ये सभी गुण तुलसी के राम में विद्यमान हैं।

अयोध्याकाण्ड का वनवास प्रसंग राम की मर्यादा को एक नया आयाम देता है। तुलसी ने उनके 'हरसु विषाद न कछु मन माहीं' वाले स्वभाव की व्याख्या अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में दिए एक श्लोक में इस प्रसंग के सन्दर्भ में इस प्रकार की है--- 
'प्रसन्नतां न गताभिषेकतस्थता न मम्ले वनवास दुःखत: ।
मुखाम्बुजं श्रीरघुनंदनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा ।।' 
यही तो है श्रीमद्भगवत्गीता में वर्णित 'समदु:खेसमेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ' का स्थितप्रज्ञ भाव। इसी समत्वभाव से वे अपने चौदह वर्ष के देश-निष्कासन को सहज स्वीकारते हैं। राम अपने पिता के प्रण की रक्षा तो करते ही हैं, साथ ही रघुवंश की कीर्ति एवं मर्यादा को भी एक नई गरिमा प्रदान करते हैं। कैकेयी विमाता है और उसका आदेश अन्यायपूर्ण है, यह विचार उनके मन में क्षण भर को भी नहीं आता। लक्ष्मण के विरोध तथा क्रोध का भी वे शमन करते हैं। यहाँ कौसल्या के चरित्र की गरिमा भी देखने योग्य है। वे 'जौ पितु-मातु कहेउ बन जाना । तौ कानन सत अवध समाना ।। ' कहकर राम को वन जाने की आज्ञा देती हैं। मां का यह संस्कार भी तो राम की मर्यादा है। 

निषादराज और केवट के अथवा वनवासी कोल-भीलों के संग उनका व्यवहार हो या मार्ग में आने वाले ऋषियों के प्रति उनका समादरपूर्ण आचरण, वे कहीं भी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं होते। सभी के प्रति वे सहज स्नेहशील हैं। 

भाइयों की मर्यादा, उनके सम्मान की रक्षा वे जिस प्रीतिभाव से करते हैं, वह अनुकरणीय है। चित्रकूट में भरत के अयोध्या वापस लौट चलने के अनुरोध को वे अपनी सहज मर्यादा से ही साधते हैं। उस प्रसंग में राम-भरत वार्तालाप 'सत्यं प्रिय हितं च यत' की शास्त्रोक्त वार्तालाप शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। महाराज जनक, गुरु वशिष्ठ एवं अन्य गुरुजनों के धर्मसंकट का परिहार वे बड़ी कुशलता एवं मर्यादा से करते हैं। संकट के समय लक्ष्मण को वे संरक्षित रखने का प्रयास करते हैं। दंडकारण्य के युद्ध में वे लक्ष्मण को सीता की सुरक्षा का भार सौंपते हैं और स्वयं अकेले ही चौदह हजार राक्षसों से जूझकर उनका संहार करते हैं। किन्तु लंका में युद्ध के समय वे लक्ष्मण के शौर्य, उनके युद्ध-कौशल को पूरा सम्मान देते हुए उन्हें मेघनाद से जूझने देते हैं। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर वे जिस तरह विलाप करते हैं, वह उनके भ्रातृप्रेम का ही तो परिचायक है। उत्तरकांड में अयोध्या पहुंचकर वे सबसे पहले भरत की 'निज कर।।। जटा निरुआरे' का कार्य करते हैं, फिर 'अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई ' और फिर अंत में 'पुनि निज जटा राम बिबराए । गुरु अनुसासन मांगि नहाए '। यह है तुलसी के राम की भ्रातृ-प्रेम की अनूठी मर्यादा। 

अरण्यकांड में एक प्रेमी-पति के उनके मनोहारी रूप का दर्शन हमें होता है। वे सीता का पुष्पों से श्रृंगार करते हैं। इसके बाद घटित होता है जयंत-प्रसंग। सीता के प्रति उसके अनाचारपूर्ण व्यवहार का कठोर दंड वे उसे देते हैं। नारी को अपमानित- प्रताड़ित करने की कुचेष्टा को दंडित करने का उनका यह कार्य उनके दीनानाथ विरुद की मर्यादा को भी प्रमाणित करता है। शूर्पणखा को भी वे तभी दंडित करने का आदेश देते हैं, जब वह आततायिनी होकर सीता को खा जाने की चेष्टा करती है। सीता की इच्छा से ही वे मायामृग के वध के लिए उद्यत होते हैं। रावण द्वारा सीताहरण के बाद वे एक सामान्य प्रेमी के रूप में जिस तरह विलाप करते हैं, वह भी उनके प्रेमी रूप को ही दर्शाता है। वे सीता के गुणों और अपनी विरह- वेदना का बार-बार वर्णन करते हैं। किष्किन्धाकांड में अपने प्रवर्षण पर्वत पर वर्षाऋतु में आवास के दौरान भी ऋतु वर्णन के ब्याज से वे अन्य बातों के अतिरिक्त 'घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रियाहीन डरपत मन मोरा ' की अपनी विरह- भावना का भी उल्लेख करना नहीं भूलते। हनुमान के हाथों जो संदेश वे सीता के लिए भेजते हैं, वह भी उनकी सीता के प्रति अनन्य प्रीति का ही द्योतक है। सुंदरकांड में वर्णित वह संदेश इस प्रकार है-
'कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुं सकल भए बिपरीता ।। 
नव तरु किसलय मनहु कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिविध समीरा ।।
।।। ।।। ।।। 
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मन मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ।।' 

राम का सीता के प्रति यह अनन्य प्रीतिभाव उनके निश्छल सात्विक चरित्र का ही द्योतन करता है। उनके चरित्र में कोई छल या दुराव कतई नहीं है। 

अरण्यकांड में जटायु के प्रति अपने पिता के मित्र के रूप में उनकी सम्मान दृष्टि भी राम की मर्यादा का ही एक अद्भुत प्रसंग है।इस प्रसंग में भी गोस्वामी जी ने श्रीराम के मुख से एक सामाजिक मर्यादा की ही व्याख्या 'परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं' कहलाकर की है। इसके बाद के शबरी प्रसंग में राम ने 'मानुष की जात एक' की मर्यादा की स्थापना एक बार फिर बड़े सशक्त रूप में की है। साथ ही नवधा भक्ति की व्याख्या के माध्यम से 'दम सील बिरति बहु करमा', 'जथालाभ संतोषा', 'सपनेहु नहिं देखइ परदोषा', 'सरल सब सन छल हीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना' जैसी जीवन की मूलभूत मर्यादाओं का ही वर्णन किया है। पम्पासर पर नारद से भेंट के प्रसंग में एक बार फिर श्रीराम ने संतों के लक्षण बताने के मिस से उन जीवन मूल्यों का ज़िक्र किया है, जिनसे मानुषी आस्तिकता उपजती है। यही संत-दृष्टि समाज को दिशा-निर्देश दे सकती है। देखें इसके लक्षण-- 

षट बिकार जित अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।।
सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ।
।।। ।।। ।।।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ।।

राम के अपने चरित्र में ये सभी लक्षण विद्यमान हैं। और इन्हीं के समुच्चय से राम की मर्यादा बनी है। यही तो हैं वे विभूतियाँ, जिनसे उनका राज्यादर्श परिचालित होता है। 

किष्किन्धाकांड में राम द्वारा छिपकर बालि के वध का प्रसंग उनकी मर्यादा पर प्रश्नचिन्ह के रूप में अक्सर उधृत किया जाता है। वस्तुतः जिस सर्वकालिक मर्यादा की स्थापना करने का जो उनका संकल्प है, 'निसिचरहीन करहुं महि' का जो उनका सात्त्विक अभियान है, 'अनुजबधू भगिनी सुतनारी' को कुदृष्टि से विलोकनेवाले, अपने अनुज को अकारण प्रताड़ित करनेवाले और आसुरी वृत्तियों वाले बालि जैसे व्यक्ति को दंडित करना उसी का तो अंग है। बालि भी तो रावण की भांति ही मर्यादाओं का उल्लंघन करनेवाला व्यक्ति है। महा-अहंकारी भी है वह रावण की ही भांति। रावण की आसुरी भोगवादी संस्कृति के अनाचारों को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त करने के उनके अभियान में बालि की सत्ता निश्चित ही एक बड़ा अवरोध था। अतः उसे विनष्ट करना ज़रूरी था। धर्म एवं राजनीति, दोनों दृष्टियों से ऐसा करना अनिवार्य था। वरना राम की मर्यादा वहीं बाधित हो जाती। 

कैकेयी का प्रतिरोध रामराज्य की स्थापना को रोक नहीं पाया। भरत ने अपनी मां की स्वार्थ दृष्टि को पूरी तरह नकार कर राम की मर्यादा को ही स्थापित किया। वहीं से रामराज्य की स्थापना की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो जाता है। राम के प्रतिनिधि के रूप में भरत ने जिस त्याग और आत्म-बलिदान के साथ नंदिग्राम में रहकर राम के आदर्शों का पूरे चौदह वर्षों तक संरक्षण किया, उसी से तो रामराज्य की स्थापना की भूमिका बनी। वस्तुतः भरत ही हैं रामराज्य के सूत्रधार। वे राम के आत्म-स्वरूप हैं और राम की मर्यादाओं को भली प्रकार जानते ही नहीं हैं, बल्कि उन्हीं मर्यादाओं को राज्य-सत्ता का आदर्श भी मानते हैं। रामराज्य तो राम की पादुकाओं के रूप में उसी दिन स्थापित हो जाता है, जिस दिन भरत चित्रकूट से लौटकर नंदिग्राम में उन्हें सिंहासनासीन कर परोक्ष रूप से राम के ही आदेश से राज्य की व्यवस्था एवं संचालन करते हैं। 

गोस्वामी जी ने जिस रामराज्य की परिकल्पना की और जिसे वर्तमान समय में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'सुराज' की संज्ञा दी, वह पूरी तरह न्याय एवं समता के सिद्धांतों पर आधारित राज्य था। उस राज्य में पारस्परिक वैमनस्य एवं संघर्ष के लिए कोई अवसर ही नहीं था, क्योंकि उसमें 

बयर न कर काहू सन कोई । रामप्रताप विषमता खोई ।। 
और 
बरनाश्रम निज-निज धरम निरत वेदपथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुख नहिं भय सोक न रोग ।।

का वातावरण था। गाँधी जी ने भी अभय को 'सुराज' के लिए अनिवार्य माना है। 

रामराज्य में 'दैहिक दैविक भौतिक तापा । ।।।। नहिं काहू व्यापा ', और 'सब नर करहिं परस्पर प्रीती चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिरीती ' , यहाँ तक कि 'खग मृग सहज बयरु बिसराई ' की अनूठी आदर्श स्थितियां हैं। वर्ग-वैषम्य नहीं है। इसी कारण 'नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना'। इस राज्य में 'सब निर्दंभ धर्मरत धुनी' एवं 'सब गुनग्य पंडित सब ज्ञानी' के साथ-साथ 'नहिं कपट सयानी' हैं और ' सब उदार सब परउपकारी' भी हैं। इसी से उस राज्य की विशेषता है-- 

दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य समाज । 
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र के राज ।। 

इस राज्य में प्रकृति भी नैसर्गिक नियमों का कभी भी उल्लंघन नहीं करती एवं समृद्ध तथा उदार होकर मनुष्य समाज का पोषण करती है-- हाँ, 'ससि सम्पन्न सदा रह धरनी', 'सरिता सकल बहहिं बर बारी' और 'सागर निज मरजादा रहहीं' की यह स्थिति आज के पर्यावरण-विपर्यय के सन्दर्भ में कितनी सार्थक एवं प्रासंगिक है, यह हमारे लिए एक विचारणीय प्रशन है। 

रामराज्य की व्यवस्था पूरी तरह लोकतान्त्रिक है। उत्तरकाण्ड में राम प्रजा को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में सभी को अभय होकर सत्ता की किसी भी चूक को या किसी भी अनीति को बरजने का निर्देश देते हैं। ' जौ अनीति कछु भाखहुँ भाई । तौ मोहि बरजेहु भय बिसराई' वही राजा कह सकता है, जो स्वयं भी पूरी तरह अनुशासित एवं मर्यादित है। यही है राम का राज्यादर्श, जिसमें राजा भी प्रजा के अनुशासन की परिधि में अपने को बांधकर राजा के प्रजारंजक रूप को परिभाषित करता है और प्रजा की इच्छा का, चाहे वह अनुचित अथवा त्रुटिपूर्ण ही क्यों न हो, समादर करते हुए स्वयं और अपने परिवार को भी दंडित करने को प्रस्तुत है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय के और आनेवाले समय के सभी शासकों के सामने एक आदर्श शासन- व्यवस्था का यह जो रूपक प्रस्तुत किया है, यही है जो मनुष्यता के विकास को एक नया आयाम दे सकता है। आज हमारे तथाकथित प्रजातांत्रिक शासकों के लिए रामराज्य की शासकीय मर्यादा एक चुनौती है। राम का शील, उनकी मर्यादा का शतांश भी यदि आज की शासन-व्यवस्था में आ जाये, तो रामराज्य की स्थापना में बहुत देर नहीं लगेगी।

नेताजी की नरक यात्रा

नेताजी मरे तो यमदूत ने उन्हें सीधे नरक में लाकर पटक दिया। नेताजी चूँकि हिंदुस्तान से आ रहे थे इसलिए नरक की हालत देखकर समझ गए कि वे कहाँ है। भड़क गए और यमदूत को फटकारा, "यह मुझे कहाँ ले आए? जानते नहीं, हम कौन हैं? नेता हैं नेता! मुझे स्वर्ग ले चलो।"
यमदूत कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर बोला, "यमराज का हुक्म है कि आपको नरक में ही रखा जाए।"
"क्योंकि आपने धरती पर काफ़ी पाप किए हैं।" यमदूत ने कहा।
"क्या बकते हो! मैं तो हमेशा ही पुण्य कार्य में लगा रहा। विकास के अनेक काम करवाए। पुल बनवाए। पाठशालाएँ बनवाईं। अनाथालय खुलवाए। महिला आश्रमों का निर्माण करवाया। लोगों को नौकरियाँ दिलवाईं। दिन-रात जनसेवा में लगा रहा। समय पड़ने पर देश की मदद कर सकूँ, इसलिए करोड़ों रुपए स्विस बैंक में जमा करवाए। क्या यह सब पाप है?"
यमदूत को लगा वाकई किसी 'पुण्यात्मा' को भूल से उठा लाया है। वह नरक में नया-नया भर्ती हुआ था। इस ग़लती के लिए यमराज कहीं उसकी छुट्टी न कर दें। उसने नेता से कहा, 'शायद मुझसे ग़लती हो गई है लेकिन अब इस ग़लती को तो यमराज ही सुधार सकते हैं, उनके पास चलना होगा।"
"हाँ-हाँ, चलो! मैं नेता हूँ, किसी से नहीं डरता, फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो।"
यमदूत और नेता यमराज के पास पहुँचे। नेता को देखते ही यमराज चीख पड़े, "इस श्वेत वस्त्रधारी भ्रष्ट प्राणी को यहाँ क्यों ले आए? इसे अस्सी करोड़ चार सौ बीस नंबर वाली कोठरी में बंद करके खूब पिटाई करो।"
"यह कैसा सनकी आदेश है? जानते नहीं, मैं कौन हूँ, नेता हूँ नेता, समाजसेवी हूँ। शायद आपसे पहचानने में भूल हुई है। मुझे स्वर्ग भेजो। वहाँ मेरी जगह आरक्षित होगी।"
यमराज हँसे। "स्वर्ग और तुम? स्वर्ग क्या तुम्हारा सर्किट हाउस है, जो अक्सर आरक्षित रहता है? हम स्वर्ग को नरक नहीं बनने देंगे। स्वर्ग तो जनता के लिए है, जिसका तुम जैसे नेताओं ने भरपूर शोषण किया है। इसलिए तुम नरक में रहो और अपनी करनी का फल भोगो।"
नेता यमराज की कड़क आवाज़ सुनकर चुप हो गया, ठीक उसी तरह जैसी धरती पर हाई कमांड के सामने अकसर हो जाया करता था। अब उसने घिघियाते हुए कहा, "लेकिन महाराज, मैंने तो खूब पुण्य किए हैं। अनेक निर्माण-कार्य करवाए हैं। जनसेवा में रात-रात भर जागता रहा। दौरे कर-करके मैंने लोगों की समस्याएँ सुनी थीं, क्या यह सब पाप है? आप शायद मुझको पहचानने में भूल कर रहे हैं। मेरे नाम का ही एक और नेता विपक्ष में है। वह गंभीर रूप से बीमार भी चल रहा था। शायद आप उसे लाने की बजाए मुझे उठा लाए।"
यमराज के बगल में ही बैठा था चित्रगुप्त। उसने मुस्कराते हुए कहा, "यह तुम्हारी राजनीति नहीं है, नेता। यहाँ दंड देने में कोई चूक नहीं होती। हो ही नहीं सकती। यह तुम्हारी पुलिस व्यवस्था भी नहीं है, जहाँ अपराधी सीना ताने घूमता है और निर्दोष जेल में सड़ता है। हमारे यहाँ तो अन्यायी को नरक और न्यायी को स्वर्ग मिलता है। यही हमारा विधान है, यही हमारी परंपरा है। वैसे भी तुम्हारी करतूतों की सूची काफ़ी लंबी है। हमसे कोई भूल नहीं हुई, समझे?"
नेता काँपने लगा। उसे लगा, अब सारे हथकंडे बेकार हो गए। फिर भी उसने साहस करते हुए पूछा, "कैसे कह सकते हैं आप कि मैंने पाप किए हैं, भ्रष्टाचार किया है। चलिए मेरे साथ धरती पर, मैं आपको वहाँ के अख़बार दिखाता हूँ जो मेरी तारीफ़ों में पन्ने रंग चुके हैं। मेरे भाषण छपे, अनेक निर्माण-कार्यों के उदघाटन करते हुए मेरे चित्र छपे। क्या किसी साधारण आदमी को इतनी बड़ी प्रसिद्धि मिलती है? बोलो।"
यमराज ने कहा, "हम जानते हैं अख़बारों की असलियत! जिस देश के अधिकांश अख़बार सत्ता की राजनीति के चारण भाट हो गए हों, जो राजनीति के आगे दुम हिलाने का आचरण करते हों, वहाँ तुम जैसे लोग ही 'बैनर' पर रहेंगे। तुम अख़बारों को विज्ञापन आदि अनेक तरह से लाभ पहुँचाते रहे हो इसलिए तुम्हारी जय-जयकार तो होगी ही न? फिर जहाँ राजनीति ही सामाजिक आचरण हो गई हो, वहाँ तुम जैसे टुटपूँजिए नेता नहीं छपेंगे तो क्या कलाकार, वैज्ञानिक, शिक्षक और साहित्यकार छपेंगे? यहाँ बैठे-बैठे हमें सबकी असलियत मालूम हो जाती है। मानव के समूचे कर्मों का लेखा-जोखा करके ही हम उसका स्थान निर्धारित करते हैं। और तुम्हारी सारी की सारी करतूत तो चित्रगुप्त के खाते में दर्ज हैं, वे कभी ग़लत नहीं होतीं। अब तुम अपनी काल-कोठरी में कष्ट भोगने चुपचाप चले जाओ, वरना. . .।"
यमराज का इशारा हुआ और यमदूत नेता को ले जाने लगा, लेकिन नेता ने हाथ छुड़ा लिया। अब यमदूत उसे खींचकर ले जाने की कोशिश करने लगा, नेता ने बच्चों की तरह मचलकर (इस किस्म का नाटक वह अकसर चुनाव के समय जनता के सामने खूब कर चुका था) रोते हुए कहा, "माई-बाप, मुझे स्वर्ग भेज दो। मैंने धरती पर भी स्वर्ग सुख लूटा है। मुझे कष्ट सहने की आदत नहीं है। मेरे साथ आप अन्याय कर रहे हैं। मैंने जनता की सेवा की और मुझे नरक मिला? अगर ऐसा ही रहा तो भला कौन समाज-सेवा के लिए आगे आएगा, राजनीति में आकर भला कौन देश चलाएगा। बोलिए?"
यमराज गंभीर हो गए। आँखों में यकायक आँसू भर आए। उन्होंने यमदूत को एक सूची सौंपते हुए कहा, "जाओ, इन लोगों को स्वर्ग से ससम्मान ले आओ।" फिर नेता की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए यमराज बोले, "अभी पता चल जाएगा कि तुम्हें नरक क्यों मिला!"
जीवन-भर दूसरों पर हँसने वाला नेता, जनता के आँसुओं से अपने जीवन की बुनियाद सींचने वाला नेता आज रो रहा था। तभी यमदूत आया, कुछ लोग उसके पीछे खड़े थे। वे चमकदार वस्त्रों से सुसज्जित थे। उन्होंने यमराज को प्रणाम किया। जैसे ही इन लोगों की नज़र नेता पर पड़ी, सब के सब चीखने लगे, "महाराज, यही है पापी, जिसके कारण हमारी अकाल मौत हुई, हमारा परिवार तबाह हो गया। इस अधम को कठोर से कठोर दंड दिया जाए।"
यमराज ने मुस्कराते हुए कहा, "हम इसे दंड ज़रूर देंगे, यही तो हमारा काम है।" यमराज ने नेता से पूछा, "इन चेहरों को पहचानते हो?"
नेता ने हकलाते हुए कहा, "ना नहीं, आज से पहले मैंने इन्हें कभी नहीं देखा।"
यमराज ने नेता को फटकारते हुए कहा, "राजनीति में रहकर, जीवन-भर झूठ बोलकर तुमने अपनी आत्मा को कलुषित कर लिया है, नेता। झूठ ही तुम्हारी राजनीति रही, अय्याशी तुम्हारी समाज-सेवा। आओ, इन तमाम चेहरों से तुम्हारा परिचय करा दूँ, शायद तब इन्हें पहचान सको।
"इस महिला को पहचानते हो? यह शिक्षिका थी। तुमने तबादला करवाने का प्रलोभन देकर इसे अपने निवास पर बुलाया और इसके साथ बलात्कार किया। बाद में लोक-लाज के कारण इसने आत्महत्या कर ली।
"इसे पहचानते हो? यह है समाजसेवी संपादक दयाराम, जिसकी तुमने हत्या करवाई क्योंकि यह तुम्हारी सारी पोलपट्टी जानता था। इसके पहले कि तुम्हारी घिनौनी तस्वीर जनता के सामने रखता, तुमने इसे ट्रक से कुचलवाकर मरवा डाला। लोगों ने समझा, दयाराम सड़क-दुर्घटना में मर गए लेकिन हम जानते हैं असलियत।
और हाँ, इसे पहचानते हो कि नहीं? यह वह शख़्स है, जिसे तुमने भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगवाकर इसलिए नौकरी से हटवा दिया क्योंकि इसने तुम्हारे भतीजे को सिफ़ारिश के बावजूद नौकरी पर नहीं रखा था। एक दिन इसकी हृदय-गति रुकी और इसका काम तमाम हो गया।
इन्हें भी शायद तुम नहीं पहचान पाओगे। ये पाँचों उस स्कूल के बच्चे हैं, जिस का तुमने शिलान्यास किया था। कमीशन खाकर तुमने ठेकेदार को काम दिलवाया और उसने रेत की शाला तैयार कर दी थी। परिणाम यह हुआ कि एक दिन कमज़ोर छत गिर पड़ी और दबकर ये बच्चे मर गए।
और इन्हें भी तुम नहीं पहचानते होंगे न? ये वे लोग हैं जो रेल-यात्रा के दौरान उस पुल से गुज़र रहे थे, जिसे तुम्हारे ख़ास पसंदीदा ठेकेदार ने बनवाया था। यह पुल दूसरी बरसात में ही ढह गया।
कुछ और लोग हैं तुम्हारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अत्याचारों से पीड़ित और तुम कहते हो कि तुमने समाज-सेवा की?"
यमराज गुस्से में तमतमा रहे थे, "बोलो, क्या यही थी तुम्हारी समाजसेवा? यही थी तुम्हारी राजनीति? सच कहना, तुमने पाप किए हैं न? यह जन-संसद नहीं है, जहाँ तुम जीवनभर झूठ बोलते रहे, यह यमलोक है यमलोक! बोलो, चुप क्यों हो?"
नेता ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसने यमराज की ओर कातर नज़रों से देखते हुए कहा, "कहाँ है मेरी कालकोठरी? मुझे वहाँ ले चलो, मुझे वहाँ ले चलो।"
नेता फूट-फूट कर रो रहा था।
यमराज आश्चर्य चकित थे। उन्होंने ज़िंदगी में पहली बार किसी नेता को इस तरह रोते हुए देखा था