गोस्वामी तुलसीदास का 'रामचरितमानस' मर्यादा का महाकाव्य है और उसके महानायक हैं श्रीराम। वे मर्यादापुरुषोत्तम हैं और महाकाव्य के समस्त घटनाक्रम में अपने चरित्र एवं आचरण से जिन मर्यादाओं की वे स्थापना करते हैं, वे एक आदर्श मनुष्य और प्रजारंजक शासक की तुलसी की परिकल्पना का ही महाख्यान है। तुलसी के राम परब्रह्म हैं, ईश्वर हैं, सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु के अवतार हैं,पर वे मानव देह एवं क्षमताओं की सीमाओं की मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं करते। 'भए प्रगट कृपाला' का उनका रूप मां के 'कीजै सिसुलीला' के अनुरोध की अवज्ञा नहीं करता। वे दशरथ के आंगन में एक सामान्य शिशु के रूप में विचरते हैं, शिशुक्रीडा करते हैं, गुरु आश्रम में विद्याध्यन हेतु जाते हैं, आश्रम के नियमों से बंधते हैं, एक राजपुत्र की भांति आखेट पर भी जाते हैं। वे 'अनुज सखा संग भोजन करहीं / मातु पिता अग्या अनुसरहीं' की बाल्यावस्था की पूरी स्थितियों को सहज भाव से जीते हैं। यह जो अनुज-सखा का संग-भाव है, यही तो उन्हें बाद में एक सहज आमजन का नायक बनाता है । किशोरावस्था से ही वे अपने प्रजारंजक रूप का परिचय देने लगते हैं-- 'जेहि बिधि सुखी होंहिं पुरलोगा / करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा' की उनकी यही भावभूमि तो उनके रामराज्य की मर्यादा की स्थापना का प्रस्थान- बिंदु है।और इसमें भी वे अपने गुरुजनों यानी अपने पिता एवं राजगुरु की 'आयसु मांगि करहिं पुरकाजा' की ही मर्यादा की स्थापना करते चलते हैं।
लंकाकांड में 'रावनु रथी बिरथ रघुबीरा' देखकर जब विभीषण अधीर होते हैं, तब राम ने 'जेहि जय होइ सो स्यंदनु'
का वर्णन इस प्रकार किया है-
'सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।।
ईसभजनु सारथी सुजाना । बिरति धर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा । बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।।
अगम अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।।'
वास्तव में राम ने धर्मरथ की इस व्याख्या के माध्यम से उन जीवन-मूल्यों एवं मर्यादाओं को ही परिभाषित किया है, जिनकी स्थापना के लिए वे जीवन पर्यन्त कृतसंकल्प रहे। इन्हीं मर्यादाओं से उन्होंने अपने अवतरण के प्रयोजन को सिद्ध किया।
उनके व्यक्तित्व में ये सभी सात्विक मानुषी वृत्तियाँ अर्थात शौर्य-धीरज-सत्य-शील-बल-विवेक-दम-परहित-क्षमा-कृपा-समता-ईशभजन-विरक्ति-संतोष-दान-बुद्धि-विज्ञान-अगम अचल मन-शम यम नियम-विप्र-गुरु के प्रति पूजा भाव अपनी परम स्थिति में उपस्थित हैं। किशोरावस्था से ही वे पूरी तरह 'विद्या विनय निपुन गुनसीला' हैं। इसी कारण वे सर्वप्रिय हैं। गोस्वामी जी ने उनकी सर्वजनप्रियता का उल्लेख इस प्रकार किया है -
'कोसलपुरवासी नर नारि वृद्ध अरु बाल ।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुं राम सुजान।।'
उनकी एक राजा के प्रजारंजक धर्म-रक्षक रूप की पहली व्यवहारिक झलक हमें विश्वामित्र मख-प्रसंग में मिलती है। इस प्रसंग के माध्यम से आततायी के दमन एवं आस्तिक-सात्त्विक भावों के पोषण के उनके अवतारी विरुद की पहली बानगी मिलती है। अहल्या-प्रसंग से उनकी नारी के प्रति उदार एवं आस्तिक दृष्टि का पता चलता है। एक समाज-बहिष्कृत एवं पतिता के रूप में तिरस्कृत स्त्री की मर्यादा का रक्षण, उसकी खोई गरिमा की पुनर्स्थापना का यह अभियान राम के मर्यादापुरुषोत्तम स्वरूप को ही परिभाषित करता है।
राम अनुजों के प्रिय हितैषी अग्रज हैं, मित्रों के सखा हैं, गुरुजनों के अति विनम्र आज्ञापालक शिष्य हैं। जनकपुरी में लक्ष्मण के बिना कहे ही वे उनकी 'जाइ जनकपुर आइअ देखी' की 'लालसा बिसेखी' को जान जाते हैं और गुरु से आज्ञा लेने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं। और फिर गुरु की अनुज्ञा लेते समय उनकी मर्यादा देखने योग्य है। 'परम विनीत सकुचि मुस्काई । बोले गुरु अनुसासन पाई'-- हाँ, यही तो है राम की एक विनम्र शिष्य की मर्यादा, जिसका पालन वनवास-काल में ऋषियों से सम्पर्क करते समय भी उनके व्यवहार में हमें बखूबी देखने को मिलता है। विश्वामित्र के प्रति उनके विनयशील व्यवहार की बानगी जनकपुर में बार -बार हमें देखने को मिलती है। देखें उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां--
'कौतुक देखि चले गुर पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ।।
सभय सप्रेम विनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ ।
गुरुपद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ।।'
रोज़ की दिनचर्या में भी इसी गुरु-शिष्य की मर्यादा का समुचित पालन देखने को मिलता है। रात्रि-शयन के समय- 'बार-बार मुनि अज्ञा दीन्हीं । रघुबर जाइ सयन तब कीन्हीं ' और प्रातः ' गुर ते पहलेहि जगतपति जागे राम सुजान'।
पुष्पवाटिका प्रसंग में षोडषवर्षीय राम के मन में सीता के प्रति जिस प्रीतिभाव का उदय होता है, वह भी अत्यंत सात्त्विक एवं मर्यादित है। मन में उपजे इस आकर्षण को वे सहज भाव से स्वीकारते हैं और उदात्त रघुवंश की मर्यादा से उसे जोड़कर उसकी सामाजिक भूमिका को परिभाषित करते हैं। तुलसी ने प्रीति की इस मर्यादा को बड़ी ही शालीनता से प्रस्तुत किया है--
' सिय सोभा हिय बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ।।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मन कुपंथ पगु धरै न काऊ ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहि सपनेहु परनारि न हेरी ।।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु दीठी ।।
इस विषय में वे गुरु विश्वामित्र से भी कोई दुराव नहीं करते –
'राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुआ छल नाहीं ।।'
पुष्प वाटिका प्रसंग में ही उनकी एक और मर्यादा देखने को मिलती है। वे वाटिका में उपस्थित मालियों से पूछकर ही पुष्प-चयन करते हैं- 'चहुँ दिसि चितइ पूछि मालीगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ।।'। आज के शासकों, उनकी संतानों के आचरण के संदर्भ में राम के इस व्यवहार को रखकर देखें। राम के राज्यादर्श की भावभूमि ऐसी ही मर्यादाओं से तो निर्मित हुई है।
परशुराम-प्रसंग राम के चरित्र, उनके आचार-विचार,उनकी व्यवहार-कुशलता एवं उनकी मर्यादा की सबसे कड़ी कसौटी है। यहाँ उनके विरोध में खड़े हैं उनके पूर्व के अवतारपुरुष भृगुवंशी परशुराम, जिनकी सात्त्विक अहम्मन्यता उनकी शक्ति भी है और उनके अवतारी स्वरूप की परिसीमा भी। राम यहाँ भी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं होते। वे 'हृदय न हरसु विषाद कछु' के अपने समत्वभाव को बिना त्यागे विनम्र और शिष्ट-शालीन बने रहते हैं। वे उन्हें 'समसील धीर मुनि ज्ञानी ' कहते हुए 'कर कुठारु आगे येह सीसा' और
'राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तुम्हारा ।।
देव एक गुन धनुष हमारे । नवगुन परम पुनीत तुम्हारे ।।
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ।।'
आदि कहकर एक ओर अपने मर्यादित व्यवहार की बानगी देते हैं, तो दूसरी ओर परशुराम के आत्मविश्वास एवं अहंकार को भी क्षीण करते हैं।
किन्तु जब परशुराम' तहू बंधु सम बाम' कहकर उनका तिरस्कार करते हैं, तब भी बिना अपना संतुलन खोये वे जो कुछ कहते हैं, वह उनके आत्मविश्वास और मर्यादा, दोनों की विशिष्टता को दर्शाता है -
'जौ हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भयबस नावहिं माथ ।।
जौ रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन काल किन होऊ ।।
कहौं सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुवंसी ।।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ।।'
यह भाषा विनम्र है, आत्मसम्मानयुत है और नीतिपूर्ण चुनौती देती भी है। तुलसी के कवित्व, उनके नाटकीय वार्तालाप वाले कुछ विशिष्ट प्रसंगों में से तो यह है ही।
तुलसी के राम कैसे हैं? वे नीतिज्ञ हैं, गुणज्ञ हैं, प्रीति-नीति, दोनों को भली प्रकार निभाना जानते हैं, सेवक-सखा-बंधु-प्रियजनों सभी के प्रति अपने व्यवहार में संतुलित एवं उदार हैं। उनका मन पूरी तरह उनके वश में है। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के प्रथम सर्ग में उनके गुणों का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
'धर्मज्ञ सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रतः ।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान ।। १२ ।।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षित ।
वेदवेदांग तत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ।। १३ ।।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो स्मृतिमान प्रतिभानवान ।
सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षण: ।। १४ ।।
सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः ।
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शन: ।। १५ ।।
अर्थात
वे धर्मज्ञ ,सत्यव्रती, प्रजा के हित में सदैव रत रहनेवाले, यशस्वी, ज्ञानसम्पन्न, पवित्र भावों से युक्त, इन्द्रियों को वश में और मन को एकाग्र रखनेवाले हैं। वे समस्त जीवलोक के रक्षक एवं धर्म के संरक्षक हैं, वेद-वेदांगों के तत्त्व को जाननेवाले एवं धनुर्विद्या में निष्णात हैं। वे अखिल शास्त्रों के ज्ञाता, तीव्र स्मरणशक्ति से सम्पन्न तथा अतीव प्रतिभावान हैं। सद्विचार और उदार हृदयवाले श्रीराम वार्तालाप में चतुर एवं समस्त लोकों में प्रिय हैं। जैसे नदियां समुद्र में आकर मिलती हैं, वैसे ही साधु पुरुष उनसे मिलते रहते हैं। वे प्रियदर्शन हैं और आर्य हों या अन्य, सभी के प्रति वे समान भाव रखते हैं।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में देवर्षि नारद द्वारा वर्णित ये सभी गुण तुलसी के राम में विद्यमान हैं।
अयोध्याकाण्ड का वनवास प्रसंग राम की मर्यादा को एक नया आयाम देता है। तुलसी ने उनके 'हरसु विषाद न कछु मन माहीं' वाले स्वभाव की व्याख्या अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में दिए एक श्लोक में इस प्रसंग के सन्दर्भ में इस प्रकार की है---
'प्रसन्नतां न गताभिषेकतस्थता न मम्ले वनवास दुःखत: ।
मुखाम्बुजं श्रीरघुनंदनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा ।।'
यही तो है श्रीमद्भगवत्गीता में वर्णित 'समदु:खेसमेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ' का स्थितप्रज्ञ भाव। इसी समत्वभाव से वे अपने चौदह वर्ष के देश-निष्कासन को सहज स्वीकारते हैं। राम अपने पिता के प्रण की रक्षा तो करते ही हैं, साथ ही रघुवंश की कीर्ति एवं मर्यादा को भी एक नई गरिमा प्रदान करते हैं। कैकेयी विमाता है और उसका आदेश अन्यायपूर्ण है, यह विचार उनके मन में क्षण भर को भी नहीं आता। लक्ष्मण के विरोध तथा क्रोध का भी वे शमन करते हैं। यहाँ कौसल्या के चरित्र की गरिमा भी देखने योग्य है। वे 'जौ पितु-मातु कहेउ बन जाना । तौ कानन सत अवध समाना ।। ' कहकर राम को वन जाने की आज्ञा देती हैं। मां का यह संस्कार भी तो राम की मर्यादा है।
निषादराज और केवट के अथवा वनवासी कोल-भीलों के संग उनका व्यवहार हो या मार्ग में आने वाले ऋषियों के प्रति उनका समादरपूर्ण आचरण, वे कहीं भी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं होते। सभी के प्रति वे सहज स्नेहशील हैं।
भाइयों की मर्यादा, उनके सम्मान की रक्षा वे जिस प्रीतिभाव से करते हैं, वह अनुकरणीय है। चित्रकूट में भरत के अयोध्या वापस लौट चलने के अनुरोध को वे अपनी सहज मर्यादा से ही साधते हैं। उस प्रसंग में राम-भरत वार्तालाप 'सत्यं प्रिय हितं च यत' की शास्त्रोक्त वार्तालाप शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। महाराज जनक, गुरु वशिष्ठ एवं अन्य गुरुजनों के धर्मसंकट का परिहार वे बड़ी कुशलता एवं मर्यादा से करते हैं। संकट के समय लक्ष्मण को वे संरक्षित रखने का प्रयास करते हैं। दंडकारण्य के युद्ध में वे लक्ष्मण को सीता की सुरक्षा का भार सौंपते हैं और स्वयं अकेले ही चौदह हजार राक्षसों से जूझकर उनका संहार करते हैं। किन्तु लंका में युद्ध के समय वे लक्ष्मण के शौर्य, उनके युद्ध-कौशल को पूरा सम्मान देते हुए उन्हें मेघनाद से जूझने देते हैं। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर वे जिस तरह विलाप करते हैं, वह उनके भ्रातृप्रेम का ही तो परिचायक है। उत्तरकांड में अयोध्या पहुंचकर वे सबसे पहले भरत की 'निज कर।।। जटा निरुआरे' का कार्य करते हैं, फिर 'अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई ' और फिर अंत में 'पुनि निज जटा राम बिबराए । गुरु अनुसासन मांगि नहाए '। यह है तुलसी के राम की भ्रातृ-प्रेम की अनूठी मर्यादा।
अरण्यकांड में एक प्रेमी-पति के उनके मनोहारी रूप का दर्शन हमें होता है। वे सीता का पुष्पों से श्रृंगार करते हैं। इसके बाद घटित होता है जयंत-प्रसंग। सीता के प्रति उसके अनाचारपूर्ण व्यवहार का कठोर दंड वे उसे देते हैं। नारी को अपमानित- प्रताड़ित करने की कुचेष्टा को दंडित करने का उनका यह कार्य उनके दीनानाथ विरुद की मर्यादा को भी प्रमाणित करता है। शूर्पणखा को भी वे तभी दंडित करने का आदेश देते हैं, जब वह आततायिनी होकर सीता को खा जाने की चेष्टा करती है। सीता की इच्छा से ही वे मायामृग के वध के लिए उद्यत होते हैं। रावण द्वारा सीताहरण के बाद वे एक सामान्य प्रेमी के रूप में जिस तरह विलाप करते हैं, वह भी उनके प्रेमी रूप को ही दर्शाता है। वे सीता के गुणों और अपनी विरह- वेदना का बार-बार वर्णन करते हैं। किष्किन्धाकांड में अपने प्रवर्षण पर्वत पर वर्षाऋतु में आवास के दौरान भी ऋतु वर्णन के ब्याज से वे अन्य बातों के अतिरिक्त 'घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रियाहीन डरपत मन मोरा ' की अपनी विरह- भावना का भी उल्लेख करना नहीं भूलते। हनुमान के हाथों जो संदेश वे सीता के लिए भेजते हैं, वह भी उनकी सीता के प्रति अनन्य प्रीति का ही द्योतक है। सुंदरकांड में वर्णित वह संदेश इस प्रकार है-
'कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुं सकल भए बिपरीता ।।
नव तरु किसलय मनहु कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिविध समीरा ।।
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तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मन मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ।।'
राम का सीता के प्रति यह अनन्य प्रीतिभाव उनके निश्छल सात्विक चरित्र का ही द्योतन करता है। उनके चरित्र में कोई छल या दुराव कतई नहीं है।
अरण्यकांड में जटायु के प्रति अपने पिता के मित्र के रूप में उनकी सम्मान दृष्टि भी राम की मर्यादा का ही एक अद्भुत प्रसंग है।इस प्रसंग में भी गोस्वामी जी ने श्रीराम के मुख से एक सामाजिक मर्यादा की ही व्याख्या 'परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं' कहलाकर की है। इसके बाद के शबरी प्रसंग में राम ने 'मानुष की जात एक' की मर्यादा की स्थापना एक बार फिर बड़े सशक्त रूप में की है। साथ ही नवधा भक्ति की व्याख्या के माध्यम से 'दम सील बिरति बहु करमा', 'जथालाभ संतोषा', 'सपनेहु नहिं देखइ परदोषा', 'सरल सब सन छल हीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना' जैसी जीवन की मूलभूत मर्यादाओं का ही वर्णन किया है। पम्पासर पर नारद से भेंट के प्रसंग में एक बार फिर श्रीराम ने संतों के लक्षण बताने के मिस से उन जीवन मूल्यों का ज़िक्र किया है, जिनसे मानुषी आस्तिकता उपजती है। यही संत-दृष्टि समाज को दिशा-निर्देश दे सकती है। देखें इसके लक्षण--
षट बिकार जित अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।।
सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ।
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निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ।।
राम के अपने चरित्र में ये सभी लक्षण विद्यमान हैं। और इन्हीं के समुच्चय से राम की मर्यादा बनी है। यही तो हैं वे विभूतियाँ, जिनसे उनका राज्यादर्श परिचालित होता है।
किष्किन्धाकांड में राम द्वारा छिपकर बालि के वध का प्रसंग उनकी मर्यादा पर प्रश्नचिन्ह के रूप में अक्सर उधृत किया जाता है। वस्तुतः जिस सर्वकालिक मर्यादा की स्थापना करने का जो उनका संकल्प है, 'निसिचरहीन करहुं महि' का जो उनका सात्त्विक अभियान है, 'अनुजबधू भगिनी सुतनारी' को कुदृष्टि से विलोकनेवाले, अपने अनुज को अकारण प्रताड़ित करनेवाले और आसुरी वृत्तियों वाले बालि जैसे व्यक्ति को दंडित करना उसी का तो अंग है। बालि भी तो रावण की भांति ही मर्यादाओं का उल्लंघन करनेवाला व्यक्ति है। महा-अहंकारी भी है वह रावण की ही भांति। रावण की आसुरी भोगवादी संस्कृति के अनाचारों को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त करने के उनके अभियान में बालि की सत्ता निश्चित ही एक बड़ा अवरोध था। अतः उसे विनष्ट करना ज़रूरी था। धर्म एवं राजनीति, दोनों दृष्टियों से ऐसा करना अनिवार्य था। वरना राम की मर्यादा वहीं बाधित हो जाती।
कैकेयी का प्रतिरोध रामराज्य की स्थापना को रोक नहीं पाया। भरत ने अपनी मां की स्वार्थ दृष्टि को पूरी तरह नकार कर राम की मर्यादा को ही स्थापित किया। वहीं से रामराज्य की स्थापना की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो जाता है। राम के प्रतिनिधि के रूप में भरत ने जिस त्याग और आत्म-बलिदान के साथ नंदिग्राम में रहकर राम के आदर्शों का पूरे चौदह वर्षों तक संरक्षण किया, उसी से तो रामराज्य की स्थापना की भूमिका बनी। वस्तुतः भरत ही हैं रामराज्य के सूत्रधार। वे राम के आत्म-स्वरूप हैं और राम की मर्यादाओं को भली प्रकार जानते ही नहीं हैं, बल्कि उन्हीं मर्यादाओं को राज्य-सत्ता का आदर्श भी मानते हैं। रामराज्य तो राम की पादुकाओं के रूप में उसी दिन स्थापित हो जाता है, जिस दिन भरत चित्रकूट से लौटकर नंदिग्राम में उन्हें सिंहासनासीन कर परोक्ष रूप से राम के ही आदेश से राज्य की व्यवस्था एवं संचालन करते हैं।
गोस्वामी जी ने जिस रामराज्य की परिकल्पना की और जिसे वर्तमान समय में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'सुराज' की संज्ञा दी, वह पूरी तरह न्याय एवं समता के सिद्धांतों पर आधारित राज्य था। उस राज्य में पारस्परिक वैमनस्य एवं संघर्ष के लिए कोई अवसर ही नहीं था, क्योंकि उसमें
बयर न कर काहू सन कोई । रामप्रताप विषमता खोई ।।
और
बरनाश्रम निज-निज धरम निरत वेदपथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुख नहिं भय सोक न रोग ।।
का वातावरण था। गाँधी जी ने भी अभय को 'सुराज' के लिए अनिवार्य माना है।
रामराज्य में 'दैहिक दैविक भौतिक तापा । ।।।। नहिं काहू व्यापा ', और 'सब नर करहिं परस्पर प्रीती चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिरीती ' , यहाँ तक कि 'खग मृग सहज बयरु बिसराई ' की अनूठी आदर्श स्थितियां हैं। वर्ग-वैषम्य नहीं है। इसी कारण 'नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना'। इस राज्य में 'सब निर्दंभ धर्मरत धुनी' एवं 'सब गुनग्य पंडित सब ज्ञानी' के साथ-साथ 'नहिं कपट सयानी' हैं और ' सब उदार सब परउपकारी' भी हैं। इसी से उस राज्य की विशेषता है--
दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र के राज ।।
इस राज्य में प्रकृति भी नैसर्गिक नियमों का कभी भी उल्लंघन नहीं करती एवं समृद्ध तथा उदार होकर मनुष्य समाज का पोषण करती है-- हाँ, 'ससि सम्पन्न सदा रह धरनी', 'सरिता सकल बहहिं बर बारी' और 'सागर निज मरजादा रहहीं' की यह स्थिति आज के पर्यावरण-विपर्यय के सन्दर्भ में कितनी सार्थक एवं प्रासंगिक है, यह हमारे लिए एक विचारणीय प्रशन है।
रामराज्य की व्यवस्था पूरी तरह लोकतान्त्रिक है। उत्तरकाण्ड में राम प्रजा को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में सभी को अभय होकर सत्ता की किसी भी चूक को या किसी भी अनीति को बरजने का निर्देश देते हैं। ' जौ अनीति कछु भाखहुँ भाई । तौ मोहि बरजेहु भय बिसराई' वही राजा कह सकता है, जो स्वयं भी पूरी तरह अनुशासित एवं मर्यादित है। यही है राम का राज्यादर्श, जिसमें राजा भी प्रजा के अनुशासन की परिधि में अपने को बांधकर राजा के प्रजारंजक रूप को परिभाषित करता है और प्रजा की इच्छा का, चाहे वह अनुचित अथवा त्रुटिपूर्ण ही क्यों न हो, समादर करते हुए स्वयं और अपने परिवार को भी दंडित करने को प्रस्तुत है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय के और आनेवाले समय के सभी शासकों के सामने एक आदर्श शासन- व्यवस्था का यह जो रूपक प्रस्तुत किया है, यही है जो मनुष्यता के विकास को एक नया आयाम दे सकता है। आज हमारे तथाकथित प्रजातांत्रिक शासकों के लिए रामराज्य की शासकीय मर्यादा एक चुनौती है। राम का शील, उनकी मर्यादा का शतांश भी यदि आज की शासन-व्यवस्था में आ जाये, तो रामराज्य की स्थापना में बहुत देर नहीं लगेगी।
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