मंगलवार, 2 नवंबर 2010

कुछ समझ नहीं आ रहा, भारत किधर जा रहा

कुछ समझ नहीं आ रहा, भारत किधर जा रहा है! इसे कौन चला रहा है, यह पता करना भी आसान नहीं है। इसे डॉ मनमोहन सिंह का मंत्रिमंडल चला रहा है या सोनिया गांधी का सलाहकार मंडल? या फिर भारत का उच्चतम न्यायालय? हमारी सरकार जिस तरह न्यायालय की डांट रोज खाती है और उसे पचाती है, इससे पता चलता है कि उसका हाजमा काफी ठीक-ठाक है। हमारी सरकार के क्या कहने? वह आत्म-मुग्ध है। आठ-नौ प्रतिशत की विकास दर ने उसे बौरा दिया है। 

इस झुनझुने को बजाती हुई वह सारी दुनिया में नाचती फिर रही है। जिस दुनिया के आगे वह नाच दिखाती है, यह वही दुनिया है, जिसका चरम लक्ष्य है - विकास दर! विकसित राष्ट्र वही है, जिसकी विकास दर ऊंची हो, जिसकी प्रतिव्यक्ति आय मोटी हो, जिसका सकल राष्ट्रीय उत्पाद खरबों में हो और जो विश्व राजनीति के अखाड़े में आर्थिक खम ठोंक सकता हो। भारत इसी भेड़-चाल पर चल रहा है।

मुग्धा नायिका की तरह भारत सरकार आंकड़ों के रूप, रस, गंध में डूबी हुई है। उसे दाएं-बाएं देखने की फुर्सत नहीं है। उसे क्या पता कि करोड़ों लोग सिर्फ 20 रुपए रोज पर गुजारा कर रहे हैं? उसे इस बात का भान ही नहीं कि भारत में 40 प्रतिशत शिशु पैदाइशी अधमरे होते हैं। 

करोड़ों लोग इस देश में रोज भूखे पेट सोते हैं। गर्मियों में लू से और सर्दियों में ठंड से मर जाते हैं। देश की लाखों पाठशालाओं में बच्चों के नीचे टाटपट्टी और ऊपर छत तक नहीं होती। हर साल 20-22 करोड़ बच्चे प्राथमिक शालाओं में भर्ती होते हैं, लेकिन बीए तक पहुंचते-पहुंचते उनकी संख्या 50 लाख भी नहीं रहती। उसे पता ही नहीं कि हर साल करोड़ों बच्चे फेल क्यों होते हैं और शिक्षा से पिंड क्यों छुड़ा लेते हैं? जितने अशिक्षित लोग भारत में हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं। 

प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा जितना सच बोलता है, उससे ज्यादा झूठ बोलता है। देश में होने वाली कुल आय में कुल जनसंख्या का भाग देकर बताया जाता है कि हर आदमी की आय तीन-चार हजार रुपए प्रतिमाह है। क्या यह सच है? क्या दुनिया में आज तक कोई सरकार ऐसी बनी है जो अपनी संपूर्ण राष्ट्रीय आय को अपने सभी नागरिकों में बराबर-बराबर बांट दे? इस देश में जितने करोड़पति हैं, किसी अन्य देश में नहीं हैं और जितने कौड़ीपति हैं, उतने भी किसी अन्य देश में नहीं। इस खाई को पाटने नहीं, छिपाने का काम करता है, प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा।

यदि भारत की प्रतिव्यक्ति आय बढ़ रही है तो जीवनस्तर की विश्व तालिका में उसका स्थान नीचे क्यों खिसकता जा रहा है? पिछड़े अफ्रीकी देशों के मुकाबले भारत के अनेक क्षेत्र मात क्यों खा रहे हैं? इस देश में शिक्षा और चिकित्सा की जैसी दोगली व्यवस्था है, वैसी शायद दुनिया में कहीं नहीं है। 

मुट्ठीभर लोगों के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और पब्लिक के बच्चे टाटपट्टी स्कूलों में! दो हजार से 15 हजार रुपए माहवार फीस कितने लोग दे सकते हैं? ये लोग अपना पेट काटकर इतनी फीस क्यों भरते हैं? क्योंकि इन पब्लिक स्कूलों और सरकारी नौकरियों के बीच हमारी सरकारों ने एक गुप्त सुरंग बिछा रखी है। उस सुरंग का नाम है अंग्रेजी। अंग्रेजी की इस सुरंग में घुसते ही आप नौकरी हथियाने के हकदार बन जाते हैं। 

इस सुरंग को जब तक उड़ाया नहीं जाएगा, भारत के सभी नौजवानों को नौकरियों के समान अवसर कभी नहीं मिलेंगे। न ही भारत के सभी नागरिक कभी शिक्षित होंगे। सर्वशिक्षा अभियान जल्द ही दम तोड़ देगा। अनिवार्य शिक्षा कानून मजाक बनकर रह जाएगा। यदि किसी विषय में बच्चे सबसे ज्यादा फेल होते हैं तो वे अंग्रेजी में ही होते हैं। 

भारत में जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा, मुट्ठीभर मालदार, शहरी और ऊंची जाति के लोग गुलर्छे उड़ाते रहेंगे और करोड़ों गरीब, ग्रामीण और पिछड़े लोग नरक भोगते रहेंगे। आठ-नौ प्रतिशत की विकास दर की मलाई भी यही वर्ग छानता है। इसी वर्ग ने खरबों रुपए की काली कमाई स्विस बैंकों में छिपा रखी है। हजारों रुपए रोज का इलाज, महंगे कपड़े-जूते-जेवर, वातानुकूलित मकान और 36 पकवानों वाला रसीला भोजन भी इस देश में इसी वर्ग को उपलब्ध है। इन्हीं सबल लोगों ने शेष भारत को निबल बना रखा है।

इसी वर्ग ने भारत के राज्यतंत्र और अर्थतंत्र को अपनी मुट्ठी में कर रखा है। भारत के महाबली दिखने वाले नेतागण इसी वर्ग के हाथ के खिलौने हैं। ‘कॉमनवेल्थ (यानी अंग्रेज के पूर्व गुलाम देश) गेम्स’ में जिस बेरहमी और बेशर्मी से गरीब जनता का अरबों रुपया खाया गया है, क्या किसी अन्य देश में ऐसा होना संभव है? वह रुपया अभी तक वसूला क्यों नहीं गया? संबंधित नेताओं और अफसरों को अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? उनकी चल-अचल संपत्ति अभी तक जब्त क्यों नहीं की गई? 

क्या उन्हें कभी कड़ी सजा मिलेगी? महाराष्ट्र में जिस मकान-सोसायटी का भ्रष्टाचार आजकल उछल रहा है, जरा गौर कीजिए कि उसका नाम क्या है? आदर्श सोसायटी! कैसी विडंबना है कि महाराष्ट्र के लिए कोई ऐसा नया मुख्यमंत्री ढूंढ़ना मुश्किल हो रहा है, जो भ्रष्टाचारमुक्त हो। 

लालू यादव के अलावा देश में आज तक कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री क्या कभी जेल की सींखचों के पीछे गया है? भारत की गिनती दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में होती है। ऐसे भ्रष्ट राष्ट्र का प्रधानमंत्री यदि ईमानदार है, तो अपने आप में यह अच्छी बात है, लेकिन इस ईमानदारी का फायदा क्या है? यह ईमानदारी देश में चल रही सारी बेईमानी की ढाल बन गई है। 

आपके जिस मंत्री पर उच्चतम न्यायालय उंगली उठा रहा है, उसे आप छू तक नहीं सकते। क्यों? क्योंकि ईमान से ज्यादा कुर्सी प्यारी है। कुर्सी खिसक न जाए, कुछ जातिवादी नेता समर्थन वापस न ले लें, सरकार टिकी रहे, इसीलिए जातीय जनगणना जैसा राष्ट्रघाती विष पीने के लिए हमारी सरकार तैयार हो गई है। यदि परमाणु सौदे के लिए आप अपनी सरकार दांव पर लगा सकते थे तो ईमानदारी और राष्ट्रीय एकात्म के लिए क्यों नहीं लगा सकते?

देश का सत्ता-पक्ष जितना लचर है, उतना ही लचर-पचर विपक्ष भी है। जनता को भी अब गुस्सा नहीं आता। महंगाई और भ्रष्टाचार भी उसे जगा नहीं पाते। क्या वजह है कि ग्रामीण रोजगार योजना और सूचना का अधिकार जैसे ब्रrास्त्र जंग लगे चाकू बन गए हैं? हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसे नेताओं का टोटा हो गया है, जो कश्मीरियों और माओवादियों से सीधे बात कर सकें। उन्हें संन्यासियों और पत्रकारों को घसीटना पड़ रहा है। दक्षिण एशिया भारत का प्रभाव-क्षेत्र है, लेकिन अफगानिस्तान और नेपाल की दुर्दशा पर भारत की अकर्मण्यता दर्दनाक है। 

चीन हमें अरुणाचल, कश्मीर, वीजा और पाकिस्तान के परमाणुकरण पर धकियाए जा रहा है और हम समझते हैं कि ओबामा की खुशामद करके हम इस व्याधि पर पार पा लेंगे। हमारा सारा ध्यान विकास-दर और पैसा कमाने पर केंद्रित है। हम यह नहीं जानते कि हम भारत को किधर ले जा रहे हैं। 

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