शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

पहले विष्णु फिर लक्ष्मी

हमारे देश में पैसे के मायने कई हैं। पैसा, रुपैया, रोकड़ा, पेटी, धन, दौलत या लक्ष्मी। जितने नाम हैं, उतने ही अर्थ हैं और ये हर पीढ़ी के साथ बदल रहे हैं। इसमें हमेशा नए अर्थ जुड़ते जा रहे हैं। हमने माता-पिता को हमेशा यह कहते सुना है कि वे कितना कम कमाते थे, फिर भी कितने खुश थे। 

कई बार हम भी सोचते हैं कि जब हम पैसे को लेकर इतने चिंतित नहीं रहते थे और उसके पीछे इस तरह भागते नहीं थे, तब हम ज्यादा खुश थे। कई लोगों के लिए काम करने का मतलब है धन कमाना। वे सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। 

उनकी कामकाजी जिंदगी आजीविका कमाने के सिवा कुछ नहीं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो इसलिए काम नहीं करते क्योंकि उन्हें पैसा कमाना है। ऐसे लोग कम हैं लेकिन हैं। मगर अब दुनिया के सबसे धनी भी यह कहने लगे हैं। 

अगर एक धनवान व्यक्ति कहे कि वह विश्व की जटिल समस्याओं को हल करना चाहता है, यही उसका मकसद है, धन उसका लक्ष्य नहीं है। तो उसे यह कहकर झटक देंगे कि अरे, वह इतना अमीर है, जब नून-तेल की चिंता न हो तो जो चाहे वह कर सकता है। 

मगर हम अपनी बुनियादी जरूरतें और सुविधाएं पूरी करने में लगे रहते हैं : बच्चों के लिए खाने और पढ़ाई का इंतजाम, माता-पिता की देखभाल और सहायता, मकान खरीदना, फिर कार और फिर बैंक में इतना पैसा हो कि आगे की जिंदगी सुरक्षित रहे। जबकि दुनिया के सबसे अमीर आदमी वारेन बफे कहते हैं कि उन्हें धन का महत्व तब समझ में आया जब मंदी के दौर से गुजर रहे थे और उनके परिवार के पास पैसा नहीं था। 

आज स्थिति यह है कि इस साल उन्होंने अपना 99 फीसदी धन व संपदा अपने जीवनकाल के दौरान ही परोपकार के कामों के लिए दान कर दी है। बफे कहते हैं कि वह भाग्यशाली थे कि उन्हें बहुत सारे लोगों का सहयोग मिला जिसके कारण वह कामयाब हो सके। अब वह दुनिया की मदद करके यह उपकार चुकाना चाहते हैं।

वारेन बफे के अजीज दोस्त और दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स ने भी अपनी दौलत दुनिया में शिक्षा की हालत को सुधारने और बीमारियों पर नियंत्रण के कामों में लगाने के लिए दान कर दी है। बिल और वारेन ने दुनिया के 20 अन्य बेहद दौलतमंद लोगों को राजी किया कि वे अपनी दौलत अपने जीवनकाल में ही दुनिया की समस्याएं हल करने के लिए दान कर दें। 

यह धन उनके जीते ही परोपकार के कामों में लगाया जाएगा, उनके मरने के बाद नहीं। इसको भी हम नकार सकते हैं कि इन दौलतमंदों ने समाज से ही इतनी बेहिसाब धन-संपत्ति कमाई थी और इसलिए समाज को लौटा देना उनका कर्तव्य बनता है। अब वे अपना यही कर्तव्य पूरा कर रहे हैं।

लेकिन अमीरी या संपदा की इस धारणा के पीछे एक बड़ा विचार छिपा है। इस विचार की मूल प्रेरणा कहीं और नहीं, हमारे वेदों में है। सच्ची दौलत या संपदा पैसे के पीछे भागने से नहीं आती। जो लोग वास्तव में कामयाब और खुश हैं, वे ऐसे लोग नहीं जो हमेशा पैसे के पीछे भागते रहे हों। 

स्टीव जॉब्स दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बनना नहीं चाहते, वे सिर्फ नई रचना करना चाहते हैं, जिनके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। नंदन नीलकनी और ज्यादा दौलतमंद व्यक्ति बनना नहीं चाहते। वह अरबपति तो हैं ही। वह अपने देश में ऐसे बदलाव लाना चाहते हैं जिनसे सामाजिक योजनाओं का लाभ सचमुच उन लोगों तक पहुंचे जिनके लिए वे बनाई गई हैं।

ऐसा क्यों है कि पैसे के पीछे भागने से हमें और ज्यादा पैसा नहीं मिलता। इसके पीछे वेदों में एक कहानी बताई गई है। इंद्र देवों के देव हैं, लेकिन संपदा की देवी से उनका रिश्ता चाह या इच्छा का है। यही कारण है कि वह लक्ष्मी के पीछे भागते रहते हैं और लक्ष्मी उनसे दूर भागती रहती हैं। 

उधर विष्णु हैं जो लक्ष्मी के पीछे नहीं भागते और नतीजा यह होता है कि जब वह शेषनाग पर विराजमान रहते हैं, लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी रहती हैं। लक्ष्मी विष्णु के प्रति नतमस्तक क्यों हैं और देवों के देव इंद्र के सामने क्यों नहीं? जब विष्णु शेषनाग पर आरूढ़ होते हैं, तब वे सृष्टि की समस्याओं के बारे में विचार कर रहे होते हैं। 

विष्णु का सच्च रूप यही है जिसमें उनके दिमाग में मनुष्य जाति को परेशान करने वाली बड़ी समस्याएं होती हैं और वह उनके समाधान के रास्ते खोज रहे होते हैं। नेतृत्व करने वाले लोगों का भी एक विष्णु रूप होता है और वह समय के साथ विकसित होता व निखरता है। लेकिन उसमें धन की कोई भूमिका नहीं होती। वह ऐसा कर पाते हैं तो इसीलिए कि उन्होंने धन के बारे में चिंता करना छोड़ दिया है।

धन की यही बड़ी विचित्र बात है। अगर आप उसके पीछे दौड़ेंगे तो वह आपको नहीं मिलेगा। लेकिन अगर आप ज्यादा बड़े लक्ष्य साधेंगे तो वह आपके पीछे चला आएगा। हमारी युवा पीढ़ी कभी-कभी यह सीख बिल्कुल भूल जाती है। 

अगर हम अपने युवाओं के नायकों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि वे सभी अमीर और धनवान लोग हैं। उनके नायकों ने जो अकूत धन-दौलत बनाई है, उससे वे मोहित हैं और उनकी सारी दिलचस्पी उनके जैसे अमीर होने में है। आज लोग एक शानदार सॉफ्टवेयर इंजीनियर नहीं बनना चाहते, वे बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स या नंदन नीलकनी की तरह धनवान बनना चाहते हैं।

यह विरोधाभास आज हमारी मुश्किल है। हमारे सारे लक्ष्य भौतिक हो गए हैं। यहां तक कि हमारे देश की सरकार का भी घोषित लक्ष्य प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना है। वह जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में तेज गति से हो रही बढ़ोतरी को हमारी तरक्की का पैमाना बताती है। जीडीपी में विभिन्न क्षेत्रों में देश की आमदनी और उत्पादन को जोड़ा जाता है। 

इसमें जो उछाल हर साल दर्ज हो रही है, उसके आधार पर दावा किया जा रहा है कि हम अपने लक्ष्य हासिल कर रहे हैं। जबकि हमारे पड़ोस में छोटे-से देश भूटान को लीजिए। उसने हैप्पीनेस इंडेक्स को अपना लक्ष्य बनाया है। 

वहां के नरेश कहते हैं कि वह चाहते हैं उनके देश के लोग सिर्फ अमीर न हों, बल्कि खुश भी हों। अगर खुश रहने के लिए उन्हें धन कमाना जरूरी है तो धन कमाएं, लेकिन खुशी के लिए दूसरी चीजें भी जरूरी हो सकती हैं।

यही कारण है कि महालक्ष्मी की पूजा से पहले हम पार्वती के 16 अन्य रूपों की पूजा करते हैं। गौरी, पद्मा, साची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वहा, मातारो, लोकमात्राह, ह्रस्तिह, पुष्टिस्तथा, टुस्ती, आत्मकुलदेवतारे। सवाल यह है कि हम लक्ष्मी की पूजा के लिए तो तैयार हैं, लेकिन क्या हम सारी जिंदगी सिर्फ लक्ष्मी की ही पूजा करते रहेंगे? इस दीवाली पर यह बड़ा सवाल है।

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