रविवार, 7 नवंबर 2010

एक बिहारी की नज़र से


बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, 'बिहार विल राइज़ फ़्रॉम इट्स ऐशेज़' यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा.
एक बिहारी की नज़र से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी.
लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2004 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी.
मैं 2004 के बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था.
पटना से सहरसा की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां.
सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.
इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी वो सहरसा पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी.
लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!
ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे.
लगभग छह सालों बाद यानि 2010 की अप्रैल में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था.
परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.
अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया.
दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं.
डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले.
किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी.
कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी.
और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है.
इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है बल्कि लालू-राबड़ी दंपत्ति का पूरा राजनीतिक भविष्य इस चुनाव से तय हो सकता है.
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी.
और मुख्यमंत्री कोई बने मेरी उम्मीद बस यही है कि जिस उम्मीद की इजाज़त बिहारियों को पिछले पांच सालों में मिली है वो अब उनसे छिन न सके.

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