रविवार, 7 नवंबर 2010

कब सुधरेंगे हम

 सुधारों के लिए यही सबसे सही समय है। आर्थिक सुधारों के लिए नहीं, बल्कि खेल संघों के ढांचे में सुधार के लिए। कॉमनवेल्थ खेल प्रारंभ होने से पहले उनकी तैयारियों को लेकर काफी हायतौबा मची थी, लेकिन भारत के खिलाड़ियों ने पदकों का शतक पूरा कर दिखाया। 

इससे एक बात तो सभी के मन में पूरी तरह साफ हो गई है (सिवाय हमारे राजनेताओं के) कि खेल संघों की मनमानीपूर्ण कार्यप्रणाली के बावजूद एथलीटों ने अपने बूते और अपने दमखम पर श्रेष्ठ प्रदर्शन कर देश का गौरव बढ़ाया है। प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले वित्त मंत्री के रूप में देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत करते हुए हमारे उद्योगों और व्यवसाय जगत को नियंत्रणों की बेड़ियों से मुक्त किया था। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि वे एक बार फिर ऐसा ही कदम उठाते हुए नाकारा खेल संघों के ढांचे को ढहा देंगे।

कॉमनवेल्थ खेलों के पदकवीर हमारे खिलाड़ियों की कहानियां बेहद मार्मिक हैं। इनमें से कई गरीबी और अभावों से जूझते हुए यहां तक पहुंचे हैं। उन्होंने अपना जीवन खेलों को समर्पित कर दिया। कड़े प्रशिक्षण के जरिये अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए उन्हें अपने परिवार से दूर तक रहना पड़ा। 

यहां तक कि साइना नेहवाल जैसे मध्यवर्गीय तबके से आने वाले खिलाड़ियों के परिवारों को भी अपने बच्चों के लिए बहुत कुर्बानियां देनी पड़ी हैं। लेकिन हर खिलाड़ी की कहानी से एक अहम कड़ी गुम है। और वह है उनकी सफलता में हमारे तथाकथित खेल संघों या संस्थाओं का योगदान, जिनकी सबसे पहले यह जिम्मेदारी थी कि वे खेल प्रतिभाओं को पहचानें और आगे बढ़ने में उनकी मदद करें।

उम्मीद की जानी चाहिए कि मनमोहन सिंह इस बात को समझेंगे कि विदेशी निवेश के साथ ही खेलों ने भी भारत की तरक्की की दास्तान में अहम भूमिका निभाई है। कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों में हुई ढीलपोल पर विदेशी मीडिया में जिस तरह नकारात्मक प्रचार हुआ, उससे निश्चित ही भारत की छवि को चोट पहुंची है। 

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद इसमें कोई शक नहीं है कि बीजिंग ओलिंपिक का बेदाग आयोजन करने वाले चीन ने भारत पर बढ़त हासिल कर ली है। इससे एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन करने की भारत की क्षमता पर सवालिया निशान लगे हैं।

हमारे यहां खेलों की स्थिति में सुधार लाने में सबसे बड़ी अड़चन हैं खेल संघों के न्यस्त स्वार्थ। आर्थिक सुधारों से पहले जो हैसियत नॉर्थ ब्लॉक और उद्योग भवन की थी, आज वही स्थिति खेल संघों और संस्थाओं की है। 

मजे की बात यह है कि इस र्ढे को बनाए रखने में सभी राजनीतिक दल एकजुट हैं। इस बहस से क्रिकेट को बाहर रखा जा सकता है, क्योंकि बीसीसीआई कामयाबी की एक शानदार कहानी है, अलबत्ता मुसीबतें उसकी भी कम नहीं। लेकिन अन्य खेल संघ तो सत्ता के अखाड़े बन चुके हैं, जहां काबिज होने के लिए राजनीतिक दलों के बीच खूब खींचतान होती है।

हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी लंबे समय से राजनेताओं और नौकरशाहों की इसी आपसी रस्साकशी का शिकार होता आ रहा है। ऐसी स्थिति में खिलाड़ियों को अपने बूते ही खुद को साबित करना पड़ता है। हमारी हॉकी टीम ने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कॉमनवेल्थ खेलों में रजत पदक हासिल किया था। बैडमिंटन संघ ने तो स्वर्ण पदक जीतने वाली खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा को उसकी उपलब्धियों के लिए ठीक से शुभकामनाएं तक नहीं दीं।

जब भारत के खिलाड़ियों ने कॉमनवेल्थ खेलों में १क्१ पदक जीत लिए, तब ये खबरें भी आने लगीं कि राजनेताओं के बीच खेलों की सफलता का सेहरा अपने सिर बांधने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। ऐसे अवसर पर उस लड़की के हौसले को बड़ी आसानी से भुला दिया जाता है, जो दस हजार मीटर दौड़ में इसलिए कांस्य पदक जीतने में कामयाब हो पाई, क्योंकि उसे पानी भरने के लिए रोज कई किलोमीटर तक दौड़ लगाकर जाना पड़ता था। 

या तीरंदाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाली वह लड़की, जिसके पिता ऑटो रिक्शा चलाते हैं। अगर खेल संघों के भ्रष्ट और जर्जर ढांचे के बावजूद हमारे खिलाड़ियों ने शीर्ष स्तर पर सफलताएं हासिल की हैं तो उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इस ढांचे में बहुत पहले ही सुधार हो जाना था।

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