शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

अयोध्या विवाद: आस्था बनाम सबूत


अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल देश, समाज और समुदाय विशेष के हितों का ध्यान रखा, बल्कि संबंधित पक्षों द्वारा रखे गए तर्को और सबूतों को भी न्यायिक कसौटी पर समझा-परखा। देश के इस सबसे संवेदनशील अदालती निर्णय में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे संविधान या विधि सम्मत न माना जा सके। जो लोग इस पर उंगली उठा रहे हैं उन्हें न तो कानून के उद्देश्यों का ज्ञान है और न ही संविधान की मूल भावना का। हकीकत यह है कि अदालत के इस फैसले का स्वागत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समूचे देश और दोनों समुदायों की परिपक्व जनता ने किया। शायद यही कारण रहा कि फैसला आने के बाद तमाम बहसों और कयासों के बावजूद देश के किसी भी हिस्से में हिंसा अथवा तोड़फोड़ की कोई खबर देखने-सुनने को नहीं मिली। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी मीडिया के एक खास तबके द्वारा यह आरोप लगाना ठीक नहीं कि अयोध्या फैसला केवल आस्था को ध्यान में रखते हुए दिया गया। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सूझबूझ भरे निर्णय का अति सरलीकरण करना है।
उच्च न्यायालय के तीनों माननीय जजों ने न केवल कानून, विधि, इतिहास और पुराता8िवक साक्ष्यों को आधार बनाया, बल्कि सदियों से चली आ रही दोनों पक्षों के लोगों की मान्यता-आस्था और भावना को भी ध्यान में रखा। जो लोग निर्णय को आस्था पर आधारित बता रहे हैं, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि आखिर कानून का मूल उद्देश्य क्या है? क्या कानून सिर्फ कानून के लिए होता है? किसी कानून की व्याख्या में आखिर किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए? वास्तव में किसी भी कानून का उद्देश्य देश की एकता, अखंडता और शांति को बनाए रखने के अलावा देश के लोगों के बीच सौहार्द कायम करने और अराजकता को रोकने के लिए एक निरोधक हथियार के रूप में काम करने का होता है। यह सर्वहित की भावना के आधार पर काम करता है। इसलिए पचासों वर्षो से देश में अशांति और तनाव की वजह बने अयोध्या मुद्दे पर यदि जजों ने कानून की धाराओं के साथ-साथ परंपरागत कानून के तहत लोगों की आस्थाओं को भी ध्यान में रखा तो इसमें गलत क्या है? यहां गौर इस पर भी किया जाना चाहिए कि अदालत ने केवल आस्था का नहीं, बल्कि सबूतों के साथ आस्था का भी ध्यान रखा।
इस मामले में यह तर्क भी न्यायसंगत नहीं कि सबूतों की रोशनी में न्याय नहीं हुआ है। अयोध्या मामले पर निर्णय सुनाते समय पीठ के समक्ष भगवान राम की जन्मभूमि के विचाराधीन प्रश्न के संबंध में तीन जजों में से दो ने कहा कि हां, यह सही है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था, जहां अभी रामलला स्थापित हैं और जिसे हिंदु समुदाय सदियों से रामजन्मभूमि मानता आ रहा है। इस बिंदु पर तीसरे जज ने कहा कि विवादित स्थल को राम जन्मभूमि मानने के लिए समुचित सबूत नहीं हैं, हालांकि एक समय के बाद हिंदू यह मानने लगे थे कि राम का जन्म इसी स्थान पर हुआ और यह हिंदुओं की सदियों से चली आ रही मान्यता है। हालांकि तीनों ही जजों ने यह माना कि यह स्थान वही है जो बाबरी मस्जिद के बीचोबीच बने गुंबद के नीचे स्थित है। ऐसा उस पुराता8िवक साक्ष्य के आधार पर माना गया जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक और अन्य विशेषज्ञों की देखरेख में मंदिरों के मिले अवशेष के अध्ययन-विश्लेषण पर आधारित था। इतना अवश्य था कि मंदिरों के अवशेष को लेकर जजों में मतैक्य नहीं था। दो जजों ने अवशेषों के साक्ष्य के आधार पर कहा कि वहां मस्जिद का निर्माण मंदिरों को ढहाकर किया गया। यहां तक कि मस्जिद के निर्माण में भी मंदिरों के कुछ भग्नावशेषों का इस्तेमाल किया गया। इससे यह साबित होता है कि वहां पूर्व में मंदिर रहे थे। इसलिए यह कहना सही नहीं कि सबूतों की रोशनी में न्याय नहीं हुआ। कुछ लोग उच्च न्यायालय के निर्णय को फैसले की बजाय समझौता बता रहे हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि अदालत का निर्णय समझौतापरक है तो आखिर इसमें बुराई क्या है? न्यायपालिका का काम भी तो यही है कि सबको न्याय मिले। न्याय देते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इससे दोनों पक्ष करीब आएं और न कि उनमें दुश्मनी बढ़े।
न्याय को हार और जीत के चश्मे से देखने की हमारी प्रवृत्ति ठीक नहीं है। अयोध्या मामले में भी दोनों जजों ने ऐसा ही निर्णय दिया। इससे कुछ को संतुष्टि मिली तो कुछ निराश हुए, लेकिन किसी को हार या जीत का एहसास नहीं हुआ। जजों ने बीच का रास्ता निकाला। जहां कुछ मुद्दों पर दोनों पक्ष असंतुष्ट हैं, उसके लिए आगे का रास्ता खुला है। वे मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले भी जा रहे हैं। अयोध्या फैसला न्याय की भावना की पुष्टि करता है, जो देश और समाज के व्यापक हित को ध्यान में रखकर दिया गया है। जो मुद्दा दशकों से राजनीतिक स्तर पर नहीं सुलझ पाया वह यदि न्यायिक प्रक्रिया से सुलझ जाता है तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग इसे पंचायती न्याय कह रहे हैं वे इस प्रकार के शब्दों से कानून की मूल भावना का सम्मान गिरा रहे हैं। सवाल है आखिर पंचायती न्याय क्या होता है? पंचायती न्याय में कानून की बारीकियों में गए बिना सामुदायिक और समाज के व्यापक हितों व परंपरा को ध्यान में रखकर निर्णय दिया जाता है। इसलिए यदि यह पंचायती निर्णय है तो भी गलत कैसे कहा जा सकता है?
इस बारे में मीडिया के एक खास वर्ग द्वारा भी कुछ सवाल खडे़ किए जाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने वाले एक तरह के छद्म उदार बुद्धिजीवी हैं जो धर्मविरोधी या हिंदूविरोधी बातें कहकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इससे उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है और ऐसा खुद को धारा के विपरीत दिखाने और स्थापित करने की नीति का एक हिस्सा भर होता है। इस तरह की कोशिशों में राजनेताओं का भी एक वर्ग सक्रिय है ताकि वह अपने वोट बैंक सुरक्षित कर सके और लोगों को प्रभावित कर सके। इसलिए इन बातों को भूल हमें इंतजार करना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या आता है।
बेहतर तो यही होता कि दोनों पक्ष मिल-बैठकर कोई सहमति का रास्ता निकालते, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो सका तो हमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार करना चाहिए और उसी तरह अपनी एकता की पुष्टि करनी चाहिए जैसा उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद की गई। दोनों पक्षों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के निर्णय के बाद अब यह भी जरूरी है कि सरकार खुद को तटस्थ रखे, क्योंकि उसकी सक्रियता को राजनीतिक चश्मे से देखा जाएगा और दोनों समुदाय इसे संदेह की दृष्टि से देखेंगे।

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