शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

सूचनाओं का सफर-घोटाला रथ से खजाना रथ तक


जयपुर का ऐतिहासिक स्टेच्यू सर्कल इस बात का साक्षी है कि सन् 1997 मेंे इसी स्थान से पहली बार एक अनूठी ’घोटाला रथ यात्रा‘
प्रारम्भ हुई थी, यह वह वक्त था जब एक दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टी के बड़े नेता द्वारा ’भय, भूख और घष्टाचार‘ के खात्मे के लिए रथ यात्रा निकाली गई थी। यह गांधी टोपी और भगवा स्कार्फ बांधे राजनेता द्वारा किया गया नाटक था जो देश में पारदर्शिता के अभाव मेंे हो रहे घोटालों की बात करता था। रथ पर सवार नेता राजवाणी राज की वाणी बोलते हुए कहता है ’’कुछ मेरे राजनीतिक विरोधी घष्टाचार-घष्टाचार चिल्लाकर माहौल बिगाड़ रहे है जबकि घष्टाचार तो देश की आत्मा है। यह कर्मचारियों का नाश्ता और हम नेताओं की खुराक है, अगर खुराक पूरी नही मिली तो नेता कमजोर हो जाएगा, नेता कमजोर, तो देश कमजोर ! फिर देश गुलाम हो जाएगा।‘‘ इस व्यंग्य रचना ने देश भर में विगत एक दशक तक जमकर विमर्श का माहौल बनाया तथा लोगों को सोचने- समझने के लिए विवश किया। इस घोटाला रथ के जरिये यह बताने की कोशिश की गई थी कि अन्तत: जनता को ही आरटीआई कानून का इस्तेमाल करके घष्टाचार का खात्मा करना होगा। लेकिन घोटाला रथ अब खजाना रथ में बदल गया है। यह रूपांतरण भी स्टेच्यू सर्कल पर ही सम्भव हुआ है। दोनों रथों पर नेता की भूमिका निभाने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी शंकर सिंह के शब्द - ’’घोटाला रथ आम जन की खजाना देखने की मांग को रेखांकित करता था, आज जब सूचना का अधिकार मिल गया है और हम खजाना देख पा रहे है तो अब हम सवाल उठा रहे है कि यह खजाना किसके काम आ रहा है?‘‘
खजाना रथ जनता के पैसे का हिसाब देता हुआ चलता है। इससे ’’हमारा पैसा-हमारा हिसाब‘‘ तथा ’’देश की जनता मांग रही है पाई-पाई का हिसाब‘‘ जैसे नारों को सार्थकता मिलती है । आरटीआई के लागू होने की पंचवर्षीय यात्रा के मौके पर ईजाद किया गया ’खजाना रथ‘ व्यवस्था में मौजूद घष्टाचार और प्रशासनिक जवाबदेही पर भी जोरदार व्यं ग्य करते हुए सरकार की कार्यपद्धति पर सवाल खड़ा करता है। आजकल राजस्थान में सरकारी कार्मिकों के वेतन भत्ता और पेंशन  के तथ्यों को लेकर जोरदार बहस छिड़ी हुई है। राजस्थान के मजदूर पूछ रहे है कि इन सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह दोगुनी कैसे हो गई। सांसदों, विधायकों ने अपने वेतन भत्ते तिगुने कैसे कर लिये? जबकि मजदूर की मजदूरी तो पिछले तीन वषा से 100 रुपये पर ही अटकी हुई है। जनता के ये सवाल सत्ता और नौकरशाही को असहज करने के लिए काफी है। लेकिन यह सूचना के अधिकार की ही ताकत है कि जनता को वास्तव में अपने मालिक होने का अहसास इस लोकतंत्र में होने लगा है, वरना तो उसकी नागरिकता केवल कागजों तक ही सीमित थी। सूचना के अधिकार की मांग का संघर्ष तथा उसको प्राप्त करने के सुखानुभव के पश्चात इसकी सफल क्रियान्विति के लिए हो रहे सतत् संघर्ष की इससे बेहतर मिसाल कहां मिलेगी? मजदूर हक सत्याग्रह ने नेताओं और अफसरशाही को जवाबदेह बनाने के लिए जवाबदेही आयोग बनाने की मांग की है। साथ ही देश का पहला ’मजदूर वेतन जन आयोग‘ भी गठित कर लिया है जो मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की सिफारिश सरकार से करेगा।
     

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