शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

मैं कहाँ छुप जाऊँ...

हमारे संबंधों में रूखापन
आ रहा है
मैं चुप रहता हूँ
उसे खटकता नहीं
मैं बोलता हूँ
उसके कान उत्सुक नहीं रहते
मैं आता हूँ उसकी नजर नहीं उठती
मैं जाता हूँ
उसका दिल नहीं डूबता
मुझे कुछ कहना होता है
उसकी दूसरों से बातें
खत्म नहीं हो रही होतीं
मुझे कुछ चाहिए होता है
उसे कुछ याद नहीं आता
मैं साहस करके कुछ कह देता हूँ
उसकी जबान फट पड़ती है
पहले मैं अनुमान लगा सकता था
क्या-क्या टूटने-चटखने की बारी है
मगर अब नहीं
मैं कितना दूर चला जाऊँ
कि उसे मेरी याद आ जाए
मैं कहाँ छुप जाऊँ
कि उसे मुझे ढूँढना पड़े?

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