शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

कोऊ नृप होए हमें ही हानी..


दोस्तो, कई महीनों से यह ब्लॉग लिखने का विचार दिमाग में था। शीर्षक सोच रखा था लेकिन एक तो शब्द एक-दूसरे से नहीं जुड़ पा रहे थे और दूसरा, करीब दो महीने से एक कैंपेन में जुटा हुआ था। तो पहले उसके बारे में ही आपको अपडेट कर दूं। आपको याद होगा कि अगस्त महीने में इसी ब्लॉग के जरिए ‘कॉमनवेल्थ झेल- काली पट्टी कैंपेन’ नाम से एक अभियान की शुरुआत हुई थी। हमारा मकसद था कि कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर ऐतिहासिक लूट का विरोध किया जाए, और चारों तरफ से इसके विरोध में उठ रही आवाजों को एक मंच पर लाया जाए। काफी हद तक हम अपने मकसद में कामयाब भी हुए।

हजारों लोग इस कैंपेन से जुड़े हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। इनमें कई नामी-गिरामी लोग, पत्रकार, साहित्यकार, कारोबारी, शिक्षाविद, समाजसेवी और अलग-अलग क्षेत्रों से लोग शामिल हैं। शुरुआत में कुछ लोगों ने इस मुहिम का विरोध किया और मजाक भी उड़ाया। कुछ ने पूछा, कि इससे क्या फर्क पड़ेगा या फिर देश में सारे ही भ्रष्ट हैं तो हम इस मुहिम के जरिए आखिर क्या हासिल कर लेंगे? लेकिन पानी बहता है तो अपना रास्ता खुद खोज लेता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता इसलिए पहली चुनौती थी कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस मुहिम में जोड़ा जाए। सुबह सोकर उठने से लेकर रात के बारह-एक और कभी-कभी तीन-चार बजे तक, लोगों को जोड़ते रहे, उन्हें इस कैंपेन के बारे में बताते रहे। फिर लोगों को भी इसमें रुचि आने लगी। कई लोग इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। इस कैंपेन के बारे में युवाओं में जागरुकता फैलाने के लिए हम जेएनयू और डीयू जैसे संस्थानों में गए और स्टूडेंट्स से मिले।

हमने इस कैंपेन से जुड़े स्टिकर छपवाए और लोगों में बांटे। साथ ही दिल्ली, मुंबई, चेन्नै, पुणे, हैदराबाद समेत देश के कई शहरों से लोगों ने हमें ईमेल किए, और हमने उन्हें ये स्टिकर कूरियर के जरिए भेजे। फेसबुक के अलावा हमने इस कैंपेन को ब्लॉग और ट्विटर पर भी पहुंचाया। धीरे-धीरे मीडिया में इस कैंपेन के बारे में खबरें छपने लगीं। कई प्रमुख भारतीय और विदेशी अखबारों में इस कैंपेन की चर्चा हुई।

कुछ मित्रों ने आशंका जताई कि गेम्स के साथ ही यह कैंपेन खत्म हो जाएगा। गेम्स खत्म हो गए लेकिन हमारा कैंपेन अब भी जारी है। बल्कि, अब तो यह पहले से ज्यादा मुखर हुआ है। क्योंकि हमारा विरोध खेल या खिलाड़ियों को लेकर नहीं, गेम्स के नाम पर मची अंधेरगर्दी के खिलाफ है। और यह तबतक चलेगा जबतक असली दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होती। रास्ता लंबा है लेकिन बड़े बदलाव रातोंरात नहीं होते। उनके लिए धैर्य और परिश्रम की जरूरत होती है। दो दिन पहले इसी संबंध में जाने-माने आरटीआई ऐक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल से मुलाकात हुई। इस मीटिंग में कई अन्य सोशल ऐक्टविस्ट और प्रबुद्ध जन शामिल हुए और यह राय बनी कि कॉमनवेल्थ में लूट को फौरी मुद्दा बनाकर करप्शन के खिलाफ एक देशव्यापी अभियान चलाया जाए। जल्दी ही यह अभियान शुरू हो जाएगा और उम्मीद करनी चाहिए कि देश के जागरुक नागरिक, सरकार को इस बारे में ठोस कदम उठाने पर मजबूर कर देंगे।

वापस लौटता हूं उस बात पर, जो कई दिनों से कहना चाहता था। अखबारों में 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटालों की खबरें आना कम हुईं तो एक नया घोटाला सामने आ गया। मुंबई में आदर्श हाउसिंग सोसायटी मा���ले में नियम तोड़े-मरोड़े गए और करोड़ों की कीमत के फ्लैट कौड़ियों के भाव कुछ खास लोगों को मिले। इनमें दो सेना के पूर्व प्रमुख, सेना के ही कई वरिष्ठ अफसर, कई पार्टियों के नेता और सिविल सर्वेंट शामिल हैं। शहीदों की विधवाओं के नाम पर बनाई गई इस सोसायटी में एक फ्लैट राज्य के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की स्वर्गीय सास के नाम पर भी है! नेता और अफसर तो बदनाम हैं भ्रष्टाचार के लिए लेकिन सेना के पूर्व प्रमुख…?

कॉमनवेल्थ में घोटालों के लिए सबसे ज्यादा आरोप सुरेश कलमाड़ी पर लग रहे हैं। कलमाड़ी इंडियन एयर फोर्स में अफसर रहे हैं... गेम्स में कई और गड़बड़ियों के लिए कांग्रेस के नेता तो निशाने पर हैं ही, बीजेपी के भी कई लोग इसमें फंसे हैं। गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों के दौरान इतने मजदूर मरे, हजारों लोगों को उनकी जगह से बेदखल करके दिल्ली के एक सूनसान कोने में फेंक दिया गया लेकिन मजदूर और शोषित वर्ग की ठेकेदार लेफ्ट पार्टियों का शायद ही कोई विरोध देखने को मिला।

कर्नाटक में माइनिंग माफिया रेड्डी भाइयों के धन और बाहुबल के आगे सीएम भी कांपते हैं। ये भाई जो चाहते हैं वह करते हैं और पूरा प्रशासन उनकी जेब में रहता है। इन लोगों के बीजेपी के कई बड़े नेताओं से संबंध हैं और वे जब चाहते हैं अपनी ही राज्य सरकार हिला देते हैं। कर्नाटक में लोहे की खदानों के अवैध दोहन से उन्होंने अरबों रुपये की संपत्ति बनाई है और अपने गुंडों की सेना तैयार कर ली है जिनसे पुलिस भी घबराती है।

ये कुछ उदाहरण मात्र हैं, यह बताने के लिए कि आम आदमी का सगा कोई नहीं है। कांग्रेस वाले करप्शन के उस्ताद हैं तो बीजेपी वाले भी पीछे नहीं। और बदलते जमाने में अपनी प्रासंगितकता खोज रही लेफ्ट पार्टियों शायद अब ‘ऐतिहासिक गलतियां’ दोहराती ही रहेंगी और इतिहास बन जाएंगी। बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि सेना में भी (खासकर अफसरों के स्तर पर) भ्रष्टाचार चरम पर है लेकिन उसकी खबरें आम तौर पर मीडिया में नहीं आ पातीं। सेना का सब सम्मान करते हैं लेकिन लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसायटी और सुकना जमीन घोटाले जैसे मामलों को देखते हुए सेना पर भी भरोसा कम होता रहा है।

आपको याद होगा, कुछ दिनों पहले पूर्व विधि मंत्री और प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के 16 में से 8 चीफ जस्टिस, भ्रष्ट थे। आरोप बेहद गंभीर था और शायद शांति भूषण पर इसके लिए अदालत की अवमानना का मामला बनता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नी-जर्क रीऐक्शन की बजाय इसे बेहद संजीदा और परिपक्व तरीके से लिया। शायद शांति भूषण के आरापों में रत्ती भर सचाई रही होगी तभी कोई उनके खिलाफ कार्रवाई करने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाया। कहने का मतलब यह है कि न्याय की सर्वोच्च संस्था के कुछ लोग भी संदेह से परे नहीं हैं। फिर हमारा रहनुमा कौन है?

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