सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

वो तो रात में ही बिक गई


घुंगरू की छनक -
और मेरा मन,
एक साथ बजे आज..
फिर मैंने,
भोर का तारा भी देखा,
और मुल्ले की पहली-
अज़ान भी सुनी..
लगा किसी और युग में,
पहुँचा हूँ .
ख़ुदा को करीब से
जानने का मन किया.
गली के उस पार,
दूसरी तरफ ..
तवायफखाने में,
कुछ बच्चों की -
आवाज़ सुनी तभी.
घुंगरू की छनक-
अब बंद थी ..
एक पल को लगा, ख़ुदा -
करीब आ गया है शायद .
पर अगले ही पल,
उन मासूमों की चीख़ सुनाई दी,
लगा के उस नूर की दुनिया में,
सब थमता जा रहा है ..
न जाने क्यूँ ?
हवस से भरे पुजारियों का कारवां,
बढ़ता जा रहा है.
अब सोचता हूँ ,
कुछ नहीं रखा -
नई सुबह में!
वो तो रात में ही बिक गई ..
अब सिर्फ सोने में ही ..
सबकी भलाई है.

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