सिर्फ यही नहीं, कई जगहों पर तो एमबीए और इंजीनियरिंग की डिग्री लिए हुए लोग चुनावों में उतर पड़े। क्या उनका मकसद वाकई इन पंचायतों के जरिए देश की सेवा करना है? या, सियासत की भ्रष्ट बंदरबांट में अपना हिस्सा बंटाने के लिए ये लोग अच्छी नौकरियों को लात मारकर राजनीति के दलदल में कूद पड़े हैं? हिंसा की घटनाएं भी इस हताशा को बल प्रदान करती हैं। यह खून-खराबा, आरोप-प्रत्यारोप चुनावों के प्रचलित टोटके हैं। इन्हें खत्म होने में वक्त लगेगा। इन्हें तस्वीर का छोटा-सा हिस्सा मानना चाहिए क्योंकि ध्रुवसत्य है कि जब तक पढ़े- लिखे युवा आगे नहीं आएंगे तब तक हालात में सुधार हो ही नहीं सकता।
1993 में 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज कानून अस्तित्व में आया। तब से अब तक अगर पंचायतों की इस यात्रा को देखें तो परिणाम मीठे और खट्टे दोनों तरह के आए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि बहुत-सी महिलाओं, दलितों और उन लोगों को खुलकर सामने आने का मौका मिला जो शताब्दियों से वंचित थे।
मैं खुद ऐसी दलित महिला को जानता हूं जिनकी शादी बहुत अच्छे घर में हुई। शुरू से ही वे पढ़ी-लिखी और तेजस्वी थीं, पर वैवाहिक जीवन के शुरुआती डेढ़ दशक तो सिर्फ अमुक की पत्नी कहलाने में ही निकल गए। लगता था जैसे किसी ने बहते हुए दरिया को बोतल में बंद कर दिया है और उसका जल उछलने को छटपटा रहा है।
जब पहली बार उनके शहर में मेयर की कुर्सी एक दलित महिला के लिए रिजर्व की गई, तब उन्हें मौका मिला। वे चुनाव लड़ीं और जीतीं। शुरुआत के दिनों में तो उनके पति महोदय हर जगह उनके साथ नमूदार नजर आते थे, पर मामला पूरे पांच बरस का था। धीमे-धीमे वे खुद मुख्तार होने लगीं। राजनीति की शब्दावली भी उनकी जुबान पर चढ़ गई। यह ठीक है कि वे कोई ऐतिहासिक काम नहीं कर सकीं, पर सदियों पुराने शहर की पहली महिला मेयर के नाते इतिहास में नाम दर्ज करा गईं। यही नहीं तमाम महिलाओं और वंचितों के मन में एक सपना भी जगा गईं कि देहरी को लांघा जा सकता है, दीवारों को तोड़ा जा सकता है। सितारों के आगे जहां और भी हैं।
वे यकीनन भाग्यशाली हैं, पर बहुत-सी महिलाओं को इस तरह का सौभाग्य नहीं हासिल हुआ। वे प्रधान या विभिन्न पंचायतों के अन्य पदों पर चुन तो ली गईं पर पढ़ी-लिखी न होने की वजह से पतियों ने उनका उपयोग सिर्फ अंगूठा लगवाने के लिए किया। हिंदी पट्टी के बहुत से गांवों में मैंने बड़े दुख के साथ कुछ महानुभावों की नेमप्लेट्स देखी हैं, जिन पर नाम से भी ज्यादा मोटे अक्षरों में लिखा होता है- प्रधानपति।
मुझे इन लोगों की सोच पर अफसोस होता है। वे औरत को अभी भी अपनी पोषित और घोषित संपत्ति बनाए रखना चाहते हैं। पर कब तक? गुलामी की दीवारों में दरकन आ गई है, यह हर रोज चौड़ी होगी। भरोसा न हो तो इन आंकड़ों पर गौर फरमाइए। आज देश में साढ़े दस लाख महिलाएं पंचायतों में भागीदारी कर रही हैं। कुछ और राज्यों में उनका प्रतिशत 50 होते ही यह संख्या और बढ़ेगी। कारवां चल पड़ा है। अब इसे रोका नहीं जा सकता।
आप याद कर सकते हैं। जब गांधी ने ग्राम स्वराज की बात कही थी, तब बहुतों को यह विचार बेतुका लगा था। बापू हर व्यवस्था को महिलाओं और दलितों के बिना अपूर्ण मानते थे। उनका तो यहां तक कहना था कि आजाद भारत की पहली राष्ट्रपति कोई दलित महिला होनी चाहिए। तब तो ऐसा नहीं हो सका था, परंतु बाद में इस देश ने दलित और अल्पसंख्यक राष्ट्रपति देखे और संयोग से मौजूदा राष्ट्रपति महिला हैं।
आजादी के बाद सपने बेचने वाले राजनेताओं ने तमाम आयोग तो बनाए, पर ग्राम सुधार के लिए कोई ढंग का काम नहीं किया। कभी आरोप लगता था कि राजीव गांधी भारत के नहीं, इंडिया के प्रतिनिधि हैं, पर उन्हीं राजीव गांधी ने ग्राम पंचायतों में महिलाओं और दलितों के आरक्षण पर गंभीर पहल की। उन्होंने पहली बार यह शिद्दत से महसूस किया था कि केंद्र से चले एक रुपये में से 15 पैसे ही गांववासियों तक पहुंच पाते हैं। उनके द्वारा गठित सिंघवी आयोग पहले के आयोगों की तरह पिलपिला साबित नहीं हुआ। उसकी सिफारिश पर ही पंचायतों में सुधार लागू हो सके।
लिट्टे के आत्मघाती हमलावरों ने भले ही 21 मई 1991 को राजीव की हत्या कर दी हो, पर वे इस विचार को नहीं मार सके। सोच के बीज जब सही जगह पर बो दिए जाते हैं तो उनमें कल्ले जरूर फूटते हैं। नरसिंह राव की सरकार ने दो बरस बाद इसे अमली जामा पहनाया। तब से अब तक कारवां चल रहा है। यह बात अलग है कि हर गिलास को आधा खाली देखने वाले लोगों की नजर में यह गांवों में दलाल और ठेकेदार तंत्र पनपाने का जरिया बन गया है। इस आरोप में कुछ सच्चाई भी है, पर अगर हम गिलास को भरा हुआ देखने की प्रवृत्ति पालें, तो उम्मीद का पौधा वटवृक्ष बनता दिखता है। जिस तरह बहुत-सी जगहों पर 70 प्रतिशत से अधिक मतदान दर्ज किया गया, वह बड़े परिवर्तन का संकेत है।
हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि अभी काफी लड़ाई बाकी है। लोकतंत्र का उत्सव तत्व यदि सिर्फ चुनाव में दिखता है तो वह अधूरेपन का प्रतीक है। उत्सव से ऊर्जा पैदा होनी चाहिए और उसे अगले चुनाव तक कायम रहना चाहिए। स्वाभिमानी हिन्दीभाषियों ने इस ऊर्जा का प्रदर्शन जरूर किया है, पर उसे सिरे तक ले जाने के लिए उन्हें अभी बहुत मेहनत करनी होगी। उम्मीद है कि इन चुनावों से विचारवान लोगों की एक नई खेप सामने आएगी। राजनीति की गंगा को साफ-सुथरा होने के लिए उनकी जरूरत है।
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