शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

साले, लड़कियों का ठेकेदार बनता है..


ब्लूलाइन बस में स्कूली ड्रेस पहने बैठीं दो लड़कियां। उम्र 13-14 साल रही होगी। उनके ठीक पीछे एक काफी बूढ़ी महिला। बस में 20-22 लोग और भी बैठे थे। सात-आठ मुस्टंडे भी बस में सवार थे। उनमें से दो लड़केपूरी तरह सहमी हुई लड़कियों के सामने खड़े होकर उनसे बदतमीजी कर रहे थे। एक लड़का लड़कियों के पीछे की सीट पर (जिस पर वृद्ध महिला बैठी था) खड़ा होकर पीछे की ओर से उनसे छेड़खानी कर रहा था। पहली बार ऐसी घटना आंखों के सामने घट रही थी...

बात तब की है जब मैं एक न्यूज चैनल में काम करता था। दिल्ली के झंडेवालां इलाके में मेरा ऑफिस था। सुबह की शिफ्ट में काम करके घर लौट रहा था। जनवरी की सर्द शाम थीकोई चार-साढ़े चार का वक्त रहा होगा। सामने से एक ब्लूलाइन बस गुजर रही थी,जिसमें आमतौर पर मैं नहीं चढ़ता था क्योंकि वह मेरे रूट की नहीं थी। फिर सोचा कि इंतजार क्या करनाथोड़ी दूर तक इससे चला जाता हूंआगे जाकर बस बदल लूंगा। बस में पीछे के दरवाजे से चढ़ गया। बस के अंदर चढ़कर सबसे पीछे की खाली सीट पर बैठ गया। अपने ख्यालों में ही खोया हुआ था कि वृद्ध महिला की आवाज ने ध्यान खींचा।

दो मासूम बच्चियां सात-आठ बदमाश से दिखने वाले लड़कों के बीच घिर गई थींबुढ़िया उन्हें बचाने की गुहार लगा रही थी। न ड्राइवरन कंडक्टर और न ही बस में किसी और यात्री ने उसकी तरफ ध्यान दिया। देख सभी रहे थेलेकिन तमाशबीन बनकर। बस का सीन किसी फिल्म की तरह मेरी आंखों के आगे से गुजर रहा था। दिमाग का एक हिस्सा बोला'तुम भी सबकी तरह चुपचाप बैठे रहोगामा बनने की जरूरत नहीं। सात-आठ हट्टे-कट्टे लड़कों के सामने तुम्हारी क्या बिसात20 दिन बाद तुम्हारी शादी हैकिसी ने चाकू-वाकू ही मार दिया तोगुंडों का क्या भरोसा। तुम्हारी बहन लगती हैं क्या? लड़की को छोड़कर तुम्हारे ऊपर पिल पड़ेंगेतब क्या करोगेशांत बैठे रहो और भगवान से मनाओ कि यह लड़के खुद ही बस से उतर जाएं।'

दिमाग का दूसरा हिस्सा बोला, वाह भई वाह, ऐसे तो बड़े राजपूत बने घूमते होआंखों के सामने ही दो लड़कियों से छेड़खानी हो रही है, खुलेआम, और तुम संत बने प्राणायाम कर रहे हो। उठो, कुछ करो नहीं तो बस से उतर जाओ और शर्म से मर जाओ, नीच इंसान, तमाशबीन। इतनी ठंड में भी शरीर पसीने से भीग गया, कॉलर के नीचे गर्दन पर गर्मी महसूस होने लगी, कान लाल हो गए।

यह सब बस कुछ सेकंडों के भीतर ही हुआ। डरी हुई लड़कियां चीख रही थीं। बुढ़िया भी चिल्ला रही थी, बदमाश लड़कों से विनती कर रही थी, बेटा इन लड़कियों को छोड़ दो, तुम्हारी भी मां-बहन होंगी। यात्रियों से कह रही अरे कोई तो उठो, इनको बचाओ। लड़के उस बुढ़िया को भी डपट देते थे। उस समय क्या शब्द बोले थे, यह तो अक्षरशयाद नहीं लेकिन मैंने उन लड़कों को तेज आवाज में लड़कियों से दूर होने और बस से नीचे उतर जाने को कहा। कंडक्टर की ओर देखकर चिल्लाया, बस को मंदिर मार्ग थाने की तरफ मोड़ लो। कंडक्टर ने मेरी बात अनसुनी कर दी।

लड़कों का स्टॉप शायद पीछे ही छूट गया था, मुझे घूरते हुए वह आगे के दरवाजे से उतरने लगे। ट्रैफिक में फंसी बस बमुश्किल रेंग रही थी। उतरते-उतरते, उनमें से कुछ लड़के पीछे के दरवाजे से फिर बस में चढ़ने लगे, शायद यह सोचकर, कि जाते-जाते एक बार और लड़कियों को मजा चखा दिया जाए। पानी सर से ऊपर गुजर चुका था। मैं पीछे के गेट पर ही खड़ा था। मैंने कहा, चलो अब बहुत हो गया, भागो यहां से। उनमें से एक बोला, साले, तू बड़ा ठेकेदार बन रहा है, बहन के... उतर नीचे, तेरी....। मेरा दोस्त हॉलैंड से मेरे लिए जूते खरीद कर लाया था। काफी भारी और मजबूत। मन ही मन सोचा, जूते का सही इस्तेमाल आज ही होना है। सबसे नीचे के पायदान पर खड़े उस लड़के के सीने पर एक जबर्दस्त ठोकर मारी। वह हवा में उड़ता हुआ सड़क पर जा गिरा, उठा नहीं। मेरा दिल धड़क कर रह गया, कहीं मर न जाए, इतनी जोर से क्यों मारा!

अपने साथी की यह हालत देखकर बाकी तो मेरे खून के प्यासे हो गए। दो-तीन पीछे के दरवाजे से और बाकी दौड़कर आगे के दरवाजे की ओर लपके, शायद यह सोचकर कि बस में घेर कर इस चश्मे वाले की मरम्मत की जाए। पीछे के दरवाजे से मैंने उनको घुसने नहीं दिया। अंधाधुंध किक बरसाता गया। जब वह ऊपर नहीं चढ़ पाए तो सड़क के किनारे से पत्थर उठा कर फेंकने लगे। खुशकिस्मती से, उनके पत्थर किसी को नहीं लगे। तब तक आगे के गेट से चढ़कर दो-तीन लड़के बस में घुस गए।

बुढ़िया चीख रही थी, कोई तो उठो, वह लड़का अकेले इतने लोगों से लड़ रहा है, कोई तो साथ दो। जो लड़के अंदर घुसे, शायद वे भी पीछे के दरवाजे पर अपने साथियों की हालत देखकर घबरा गए थे। मुझे मारने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उनके हाथ, उनका साथ नहीं दे रहे थे। एक के हाथ में मेरा स्वेटर आ गया तो वह गले से नीचे तक बीच से फट गया। एक-आध मुक्के पीठ और कंधे पर मुझे पड़े। लेकिन अब मेरा डर निकल चुका था। तुम दो मारोगे तो मैं चार मारूंगा, यह सोचकर दनादन हाथ और लात चलाए पड़ा था। फिर शायद उन लड़कों की हिम्मत जवाब दे गई। तब तक बस भी रफ्तार पकड़ चुकी थी। लड़के मुझे गालियां देते हुए भाग रहे थे। दिल्ली की बस में लड़कियों से छेड़छाड़ की एक और खबर बनते-बनते रह गई

यह कहानी बताने का मकसद

यह घटना पांच साल पहले की है, शायद दोबारा ऐसा वाकया मेरे सामने हो तो मैं ऐसी हिम्मत न दिखा पाऊं। लेकिन यदि आप युवा हैं तो फिर तमाशबीन मत बनिए, चुप मत बैठिए। एक सच्चा आदमी दसियों बदमाशों पर अकेले ही भारी है। यह मत सोचिए कि मुझे क्या होगा। जैसे झूठ के पांव नहीं होते वैसे ही गुंडे-बदमाशों के भी पांव हिम्मत वालों के सामने उखड़ जाते हैं। यह भी मत सोचिएगा कि वह आपकी बहन नहीं लगती। कल को आपकी बहन के साथ ऐसा हुआ तो और लोग भी ऐसा ही सोच लेंगे। उम्मीद है निराश नहीं करेंगे। नहीं तो क्या है, आप भी गाना गाइए, यह बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती... और कोसते रहिए शीला दीक्षित से लेकर युद्धवीर सिंह डडवाल को।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें